________________ जैन दर्शन में पञ्च परमेष्ठी देहादिचत्तसंगो माणकसाएण कलुसिओ धीर / अत्तावणेण जादो बाहुबली कित्तियकालं / / इसलिए आचार्य कहते हैं कि सममअर्थात् शरीर एवं अन्य बाह्य पदार्थो में ममत्व बुद्धि रखने वाला, सत्त्व कर्मबन्धको प्राप्त होता है और इससे विपरीत निर्भम अर्थात् 'यहां मेरा कुछ भी नहीं है और न ही 'मैं किसी का हूं' इस प्रकार की ममत्व बुद्धि से विरहित भव्य आत्मा मुक्तिलाभ पाता है / अतएव सत्त्च को उस निर्ममत्व अकिञ्चनत्वभाव का सदैव चिन्तन करना चाहिए-- बद्धयते मुच्यते जीवः सममो निर्ममः क्रमात / तस्मात्सर्वप्रयत्नेन निर्ममत्वं विचिन्तयेत् / / निर्ममत्व चिन्तन में लीन सत्त्व आत्मस्वरूप का साक्षात्कार करता है और स्वयं योगिगम्य रहस्य परमात्मत्व को धारण कर लेता है -- अंकिचनोऽहमित्यास्स्व त्रैक्लोक्याधिपतिर्भवः / योगिगभ्यं तव प्रोक्तं रहस्यं परमात्मनः / / जो विवेकीअन्तरात्मा शरीर से भिन्न आत्मा को ही अपना मानता है वह इस भौतिक देहोपाधि से रहित (=विदेह)हो जाता है अर्थात् शरीर को छोड़कर वह स्वयं परमात्मा बन जाता है -- देहान्तरगतीजं देहेऽस्मिन्नात्मभावना / बीजं विदेहनिष्पत्तेरात्मन्येवात्मभावना / / कल्याण मन्दिर स्तोत्र में भी ऐसे ही भाव का चिन्तन किया गया है कि 'जिस प्रकार स्वर्ण-पाषाण तीव्र अग्नि के संयोगसे पाषाणस्वरूपको छोड़कर कान्तिमान् शुद्ध स्वर्ण कीअवस्थाको प्राप्त हो जाता है, उसी प्रकार तपश्चरण करने से भव्य सत्त्व भी शीघ्र ही उस सप्तधातुमय शरीर का परित्याग कर परमात्म अवस्था को पा लेता है-- घ्यानाज्जिनेश भवतो भविनः क्षणेन देहं विहाय परमात्म-दशां व्रजन्ति। तीवानलादुपलभावमपास्य लोके चामीकरत्वमचिरादिव धातुभेदाः / / 1. भावपाहुङ, गा०४४ 2. इष्टोपदेश, श्लो० 26 3. आत्मानुशासन, श्लो० 110 4. समाधितन्त्र,७४ 5. ज्ञान० पू०, कल्याणमन्दिरस्तोत्र, 15