________________ जैन दर्शन में पञ्च परमेष्ठी जो भव्य जीवों को हेय-उपादेय तत्त्वज्ञान हेतुभूत आगम ग्रन्थों का प्रणयन (रचना) करते हैं -- आप्तेनोत्सिन्नदोषेण सर्वज्ञेनागमेशिना / भवितव्यं नियोगेन नान्यथा ह्याप्तता भवेत् / / ' आगे भी कहा गया है कि यही आप्त परमेष्ठी, पंरज्योति, विराग, विमल, कृती, सर्वज्ञ, अनादिमध्यान्त, सार्व और शास्ता रूप से प्रतिपादित होते हैं--- परमेष्ठी परमज्योतिर्विरागो विमलः कृती / सर्वज्ञोऽनादिमध्यान्तः सार्वः शास्तोपलाल्यते / / 2 इसका अभिप्राय है कि जो भव्य सत्त्व इन्द्रादि के द्वारा वन्दनीय परम पद में स्थित है वही परमेष्ठी है और जो आवरणरहित केवलज्ञान से संयुक्त है, वह परंज्योति कहलाता है ।इनके रागरूपभावकर्म के नष्ट हो जाने से इन्हें ही विराग और यही मूलोत्तर प्रकृतिरूप द्रव्यकर्प के नष्ट हो जाने से विमल, समस्त हेय तथा उपादेय तत्त्वों के विषय में विवेक सम्पन्न होने से कृती, समस्त पदार्थों के साक्षात्कारी होने से सर्वज्ञ और पूर्वोक्त स्वरूप प्राप्त प्रवाह की अपेक्षा आदि, मध्य और अन्त से शून्य होने से अनादिमध्यान्त, इहलोक और परलोक के उपकारक मार्गदर्शक होने से हितैषी (साव) और पूर्वापर विरोध आदिदोषों के परिहार से समस्त पदार्थो के यथावत् स्वरूप का उपदेश देने वाले होने से वही आप्त परमेष्ठी शास्ता कहे जाते हैं / लोक में जिस प्रकार दिन के बाद रात और फिर रात के बाद दिन का प्रादुर्भाव नियम से होता है, उसी प्रकार सुख के बाद दुःख और फिर दुःख के बाद सुख भी नियम से चक्र के समान होता ही रहता है किन्तु यह लौकिक 1. रत्नक० 1.5,6 2. रत्नक० 1.7 3. परमे इन्द्रादीनां वन्द्ये पदे तिष्ठतीति 'परमेष्ठी' / परं निरावरणं परमातिशयप्राप्त ज्योतिर्ज्ञानं यस्यासौ 'परमज्योतिः' / विरागः' विगतो रागो भावकर्म यस्य / 'विमलो' विनष्टो मलो द्रव्यरूपो मूलोत्तरकर्मपकृतिप्रपंचो यस्य / कृती निःशेषहेयोपादेयतत्त्वे विवेकसम्पन्नः / सर्वज्ञो' यथावन्निखिलार्थसाक्षात्कारी।'अनादिमध्यान्तःउक्तस्वरूपप्राप्तप प्रवाहापेक्षयाआदिमध्यान्तशून्यः / सार्वः' इहपरलोकोपकारकमार्गप्रदर्शक -त्वेन सर्वेभ्यो हितः / शास्ता पूर्वापरविरोधादिदोषपरिहारेणाखिलार्थानां यथावत्स्वरूपोपदेशकः / वही, 1.7 टीका सुखस्यानन्तरं दुःखं दुःखकस्यानन्तरं सुखम् / द्वयमेतद्धि जन्तूनामलंध्यं दिन-रात्रिवत् / / आत्मानुशासन, प्रस्तावना, पृ० 36 पर उद्धृत