________________ जैन दर्शन में पञ्च परमेष्ठी है / किन्तु जैन वीतरागी को ही परमेष्ठी मानते हैं / कतिपय जैनाचार्यों ने हजार नामों (सहस्रनाम) से इन परमेष्ठियों की स्तुति की है जिनमें जिनसेन हेमचन्द्र 3, भट्टारक सकलकीर्ति और पं० आशाधर 5 प्रमुख हैं। परमेष्ठी की व्याख्या : __ पं० आशाधर परमेष्ठी शब्द की व्याख्या करते हुए कहते हैं कि जो इन्द्र, धरणेन्द्र, नरेन्द्र,गणेन्द्र आदि के द्वारा वन्दनीय, परम उत्कृष्ट स्थान पर विराजमान हैं, वे परमेष्ठी हैं- परमे उत्कृष्टे इन्द्र-धरणेन्द्र-नरेन्द्र गणेन्द्रादिवन्दिते पदे तिष्ठतीति परमेष्ठी / आचार्य कुन्दकुन्द की दृष्टि में परमेष्ठी वह है 'जोमलरहित,अनिन्द्रिय, केवलज्ञानी, विशुद्धात्मा, परमजिन और शिवङ्कर है-- मलरहिओ कलचत्तो अणिंदिओ केवलो विसुद्धप्पा / परमेट्ठी परमजिणो सिवड्करो सासओ सिद्धो / / " यहां मलरहित का तात्पर्य है-अठारह दोर्षो से रहित होना / परमेष्ठी का सबसे बड़ा गुण ही यह है कि उसमें अठारह दोषों का अभाव होता है / इसी को आचार्य समन्तभद्र ने 'प्रदोषभुक्' और आचार्य पूज्यपाद ने 'निर्मल: केवलः शुद्धः' कहकर अभिव्यक्त किया है / साथ ही साथ आचार्य पूज्यपाद परमेष्ठी को प्रभु स्वयंभु अव्यय आदि शब्दों से भी सम्बोधित करते हैं -- निर्मलः केवलः शुद्धो विविक्तः प्रभुरव्ययः / परमेष्ठी परमात्मेति परमात्मेश्वरो जिनः / / इस तरह जैन परम्परा में परमेष्ठी का सर्वोपरि महत्व है / वे ही सभी को परम आदरणीय एवं उपासनीय हैं।आचार्यकुन्दकुन्द लिखते हैं कि पञ्चमरमेष्ठी लोकोत्तम हैं, वीर हैं, नर, सुर तथा विद्याधरों से पूज्य हैं / संसार के दुःखामिभूत 1. ऋतुः सुदर्शनः कालः परमेष्ठी परिग्रहः / विष्णु० श्लो०५८ 2. दे०-जिनसहस्रनाम, पृ०४६-५० 3. वही, पृ०५३-५६ 4. वहीं, पृ०५०-५३ 5. वही, पृ०४२-४६ वही, 2.23 स्वोपज्ञवृत्ति 7. मोक्षपाहुड, गा०६ 8. क्षुत्पिपासा-जरातंक-जन्माऽन्तक-भय-स्मयाः / न राग-द्वेष-मोहाश्च यस्याप्तः सः प्रकीर्त्यते प्रदोषभुक् / / समीचीन धर्मशास्त्र, 1.6 6. समाधितन्त्र,६