________________ विषय-प्रवेश और उच्चकोटि का रक्षक, भवन, ज्योति, बिन्दु एवं तारा है / जो इस मन्त्र का सहज भाव से भी उच्चारणमात्र कर लेता है, उस सत्त्व को अगम अगोचर वस्तु की उपलब्धि हो जाती है / इसी अदृष्ट से वह सत्त्व उसमें अक्षय श्रद्धा रखता हुआ सदैव अपना अभ्युदय करता है / इस तरह जिस किसी ने भी इस मन्त्र को जिस किसी भी रूप में देखा, समझा अथवा अपनाया उसे उसी रूप में उस-उस लक्ष्य की प्राप्ति हुई है / इसी से इसे मन्त्रों का मन्त्र महामन्त्र बतलाया गया है | उपर्युक्त मंगल महामन्त्र में- अरहन्त, सिद्ध, आचार्य, उपाध्याय एवं साधु इन पांच परमेष्ठियों को नमस्कार किया गया है / यहां यह परमेष्ठी पद ध्यान देने योग्य है। परमेष्ठी पद की निरुक्ति : __ 'परमेष्ठी' इस पद में परम+इष्ठिन् ऐसे य दो पद हैं / विद्वानों ने परमेष्ठी शब्द का अर्थ 'ब्रह्य-शिव-विष्णु की उपाधि तथा आध्यात्मिक गुरु' किया है। परमेष्ठी का एक सरल अर्थ यह भी निलकता है कि 'जो श्रेष्ठ अथवा सर्वोच्च स्थान में विद्यमान हो ' वह परमेष्ठी है ।जैन प्राचीन कोश अभिट नराजेन्द्र में परमेष्ठी का अर्थ 'ब्रह्य' किया है और ब्रह्म का अर्थ आत्मा भी किया जाता है। इसका अभिप्राय यह है कि परमे ब्रह्मणि आत्मनि तिष्ठति रमते वा इति परमेष्ठी अर्थात् जो परम ब्रह्य अथवा आत्मा में स्थिर रहता है, रमण करता है वह परमेष्ठी है। ये परमेष्ठी पवित्रात्मा, परमात्मा, परमगति, सुख एवं ज्ञान की प्रतिष्ठा एवं शरण, आनन्द रूप हिंसा आदि का मन्थन करने से प्रशान्तचित्त और पद-पद पर स्थित होने से ही परमेष्ठी कहे जाते हैं / इन्हीं परमेष्ठी को सर्वदर्शी, विमुक्तात्मा, सर्वज्ञ, अमृतांश एवं सर्वतोमुख आदि नामों से पुकारा गया है। विष्णुसहस्रनाम में विष्णु को परमेष्ठी बतलाया गया 1. दे०-(आप्टे) संस्कृत-हिन्दी कोश, पृ० 577 2. (मोनियर विलियम), संस्कृत--इगंलिश डिक्शनरी, पृ० 588 3. अभिधानराजेन्द्रकोष, भाग-५, पृ०५४२ 4. पूतात्मा परमात्मा मुक्तानां परमा गतिः / विष्णु०, श्लोक० 15 5. प्रतिष्ठा च सुखं ज्ञानं भवेत् शरणमित्यतः / परमानन्दरूपत्वात् शर्म हिंसादिमन्थनात् / / वही, निरुक्तिकारिकावलि, 70 6. पदे पदे स्थितत्वाच्च परमेष्ठी प्रकीर्तितः / वही, 314 7. सर्वदर्शी विमुक्तात्मा सर्वज्ञो ज्ञानमुत्तमम् / विष्णु० श्लो०६१ 8. अमृतांशोऽमृतवपुः सर्वज्ञः सर्वतोमुखः / वही, श्लो. 100