________________ प्रथम परिच्छेद विषय-प्रवेश वैदिक ऋचाओं में आगत कतिपय अर्हत्, वृषभ, केशी एवं वातरशना आदि शब्दों का उल्लेख, मोहनजोदड़ों तथा हड़प्पा के उत्खनन में प्राप्त वैराग्य-भावपूर्ण मूर्तियां तथा श्रीमद्भागवत में उपलब्ध नाभिनन्दन ऋषभ के कतिपय सन्दर्भ जैनधर्म की प्राचीनता एवं उसकीअक्षय गरिमा सिद्ध करते हैं। निःसन्देह करोड़ों-करोड़ों वर्ष पूर्व उत्पन्न अन्तिम कुलकर नाभिराज के पुत्र और जिनके प्रथम चक्रवर्ती पुत्र भरत के नाम पर इस आर्य खण्ड का नाम भारत पड़ा, ऐसे जगत् के लिए आराध्य एवं पूज्य तीर्थंकर ऋषभनाथ जैन धर्म के आद्य धर्मप्रवर्तक हैं / इतना ही नहीं, इन तीर्थंकर आदिनाथ ऋषभनाथ के पश्चात् अजित, सम्भव, अभिनन्दन,शांति कुन्थु एवं पार्श्वनाथ आदि महावीरपर्यन्त और अन्य तेईस तीर्थंकर हुए हैं जिन्होंने इस वसुन्धरा को अपनीअमृतवाजल की वर्षा सेंधर्मवृक्षको सदैव सिञ्चित, पुष्पित एवं विकसित किया है | आज हम अन्तिम चौबीसवें तीर्थंकर भगवान् महावीर के धर्मतीर्थ में विचरण कर रहे हैं। णमो अरहताणं, णमो सिद्धाणं, णमो आयरियाणं / णमो उवज्झायाणं, णमो लोए सव्वसाहूणं / / यह नमस्कार-मन्त्र परममन्त्र,परम-रहस्य, सर्वश्रेष्ठ तत्त्व,शुद्धविशुद्ध एवं सर्वोत्कृष्ट ज्ञान तथा स्वाध्याय करने योग्य उत्तम मन्त्र विशेष है - ऐसो परमो मंतो, परमरहस्सं परंपरं तत्तं / नाणं परमं नेयं, सुद्धं झाणं परं झेयं / / ' इसी से इस नमस्कार महामन्त्र में जैनों की अपरिमित श्रद्धा है / यह जैनदर्शन में अनादि मूलमन्त्र के रूप में स्वीकार किया गया है ओं हीं अनादि मूलमन्त्रेभ्यो नमः / वे इसमें ही निहित आराध्य देव विशदात्मा, परमेष्ठी, तीर्थंकरों की प्रतिक्षण भक्ति-भावपूर्ण अर्चा एवं पूजा करते हुए अपने जीवन को धन्य मानते हैं / 1. मंगलमन्त्र णमोकारः एक अनुचिन्तन, पृ०२५७ पर उद्धृत