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41. गणधर
42. गानय 43. ग्रहणैषणा
44. गुप्ति 45. गवेषणा या उपादान दोष
46. छंदना-अभ्युत्थान
47. जिनकल्पी
48. त दुभय 49. तीर्थंकर
xxvi • पारिभाषिक शब्दावली
: स्थानीय जैन धर्म संघ का सर्वोच्च कर्ता-धर्ता अधिकारी । यह संज्ञा तीर्थंकर के लिए तथा सामान्य आचार्य के लिए भी प्रयुक्त हुई है।
: ज्ञानी अथवा पंडित मान्य
: श्रमण साधु की स्वीकार की हुई भिक्षा भी दोषपूर्ण हो जाएगी यदि भिक्षा के दस दोषों में से कोई भी उपस्थित हो जाए जैसे— भिक्षा देते समय अन्य भोजन फैल जाए, देते समय दाता भयभीत हो, यदि दाता का व्यवसाय अनैतिक हो, आदि-आदि। जैन भिक्षु ऐसी भिक्षा ग्रहण नहीं कर सकता जो विशेष रूप से श्रमण के लिए बनाई गई हो। श्रमण घोषणा करते थे कि वह दूसरों के लिए बनाए गए भोजन में से भिक्षा मांगने आए हैं।
: निवर्तन, पाप निरोध के लिए अकरणीय
: सोलह भोजन सम्बन्धी ऐसे दोष जिन्हें माध्यम बनाकर श्रमण गृहस्थ से भोजन पा तो सकता था, पर इससे श्रमणत्व को दोष लगता है। जैसे गृहस्थों के बच्चे खिलाना, उन्हें अन्यों के समाचार देना, अथवा उनकी दानवृत्ति की प्रशंसा करना आदि।
: भिक्षा प्राप्त हो जाने पर तथा भिक्षा लाते समय अन्य साधुओं को उस में भाग लेने के लिए आमंत्रित करना।
: यह श्रमण नग्न रहते हैं तथा भिक्षापात्र भी नहीं रखते। हाथों पर ही भोजन ग्रहण करते हैं।
: सूत्र तथा अर्थ दोनों के लिए सहप्रयुक्त संज्ञा । : पारगामी, जो संसार सागर को पार कर किनारे लग गया। यह संज्ञा श्रमण धर्म-प्रवर्तकों के लिए प्रयुक्त हुई है।