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किरण १]
रत्नकरण्ड और प्राप्तमीमांसाका एक कर्तृत्व अभी तक सिद्ध नहीं
नियुक्तिकार भद्रबाहु सम्बन्धी चिन्तन दूर पर जाता है समझा जा सकेगा कि प्रासंगिक और अप्रयानक प्रश्न या
और प्रस्तुत विषय पूर्णत: हक्त सीमाके भीतर प्राजाता है। प्रसंग और गौण बात कोन प्रस्तुत करता है और कौन स्पष्ट इसीलिये पंडितजीने जो अपने लेख में नियुक्तिकार और मास- तथ्यको झमेले में डालता है। मीर्मोमाकारके मतैक्यके सम्बन्ध में उल्लेख दिये हैं (घ) मान्यताका ग्रहण और परित्याग कर कहा जाता है ?उनपर भी फिलहाल मैं कुछ नहीं लिखूगा । किन्तु पडित जीने मागे चलकर पुन: उसी बातपर जोर यदि वात विवेचन में पंडितमी लेखक्रमके ही पक्षपाती हैं दिया कि चकि मैंने एक जगह स्वामी ममन्तभद्रकृत तो उन्हें यह स्वयं अपने लेखों में चरिताथ करना उचित
रत्नकरगर श्रावकाचारका उल्लेख किया। अतएव पहले था। मैं पंडितजीकी ही न्यायसरायके अनुसार उनस।
मेरी मान्यता थी कि प्राप्तमीमांसाकार और सनक रगडकार पूछना चाहता हूँ कि उन्होंने मेरे जिस 'जैन इतिहासका एक व्यकिथे और अब मैंने वह मान्यता छोर दी है, एक विलुप्त अध्याय' शीर्षक लेखके आधारसे लिम्वना इत्यादि किन्तु मैं न्यायाचार्य जीसे पुनः कहना चाहता है प्रारम्भ किया है उसीके क्रमसे क्यों वे स्वयं नहीं चलते कि किमी ग्रंथ और उसके कर्ताका उमक प्रचलित नामांस और जो बातें प्रमाण युक्त एवं ठीक हैं उन्हें स्वीकार करके उल्लसमान करना लेखककी उस ग्रंथके कतृत्वसम्बन्धी आगे क्यों नहीं बढ़ते ? म्वयं तो कहीं इधर कहीं न धरकी किमी मान्यताका द्योतक नहीं है । यदि में आज भी रान बास ले लेकर लेख लिखना और फिर दमरोंपे क्रमभगकी
कर राहश्रावकाचारका उल्लेख करूं तो मुझे वह स्वामी शिकायत करना किसी तरह भी उचित नहीं है।
समन्तभद्रकृत ही कहना पडेगा, क्योंकि वही नाम प्रकाशित (ग) अप्रयोजक प्रश्न कौन उठाता है?
प्रतियोर छपा है। यदि मैं उसे योगीन्द्र-कृत कहकर
उद्धत करतो कितने पाठक उसे मममेंगे? हम प्रतिदिन तीमरी शिकायत पंरितजीने मेरी रीति-नीतिक विषय
बीसों ग्रंथोंका उल्लेख उनके प्रकाशित नामों व कांकि में यह की है कि "वे मुग्य विषयको टालने के लिये कुछ
निदेशपूर्वक करते हैं। उनमें से यदि कभी किमी ग्रंथ और अप्रोजक प्रश्न या प्रसंग अथवा गौण बातें प्रस्नुन कर देते
उसक कापर विशेष अध्ययन करके किमी खास निर्णय हैं और स्पष्ट तथ्यको झमेले में डाल देते हैं।" इस बातको
पर पहुंचे तो किसी विवेकी समालोचकका यह कर्तत्य नहीं पुष्ट एवं सत्य सिद्ध करनेके लिये उन्होंने मेरी कलकत्साकी
है कि वह उसपर अपनी पूर्व मान्यता छौबनेका नौछन मौखिक चर्चाका उल्लेख किया है और तसंसंबंधी मेरे लिये
जगाव । मान्यता तो सभी होती है जब किसी बातको गये विवरणको प्राश्चर्यजनक वक्तव्य' कहा है, तथा मेरी
मनन पूर्वक प्रहण और स्थापित किया जावे । किन्तु जहां 'वीतरागकथामें अन्यथा प्रवृत्ति' को स्थान देने व सत्यता
पूर्वमें ऐसी मान्यता प्रकट ही नहीं की गई वहां उसे को उदारतापूर्वक नहीं अपनाने के श्राक्षेप किये हैं। इस
छोडने प्रादिका जान्छन लगाना नो निमूल और निराधार प्रकार जितनी कुत्सित वृत्तियों एक माहियिक में हो सकती
श्राक्षेप ही कहलायगा, जिसका प्रमाण क्षेत्रमें कोई मूल्य हैं उन सबका मुझपर विना प्रमाण दिये ही भारोपण कर
नहीं। के यदि पंडितजीमें कुछ भी न्यायशीलता शेष है तो उनका यह कर्तव्य हो जाता है कि वे प्रस्तुत विषय तथा कलकत्ता
(१ ) केवल के मोह जन्य वृत्तियों का प्रभावकी तत्त्वचर्चा-सम्बन्धी उन बातोंको मेरे भौर संपार के
न्यायाचार्य जीने जो विना किमी विधायक केवलीमें सम्मुख विगतवार पेश करें जिनके आधारपर उन्होंने मुझ राग द्वेष श्रादि मोहजन्य प्रवृत्तियोंका भी अभाव सिद्ध करने के पर ये घोर अपराध पारोपित किये हैं। यदि उन्होंने उन लिये अनावश्यक उल्लेख प्रस्तुत किये थे उसपर मैंने अपने सब बातोंको स्पष्टतासे प्रस्तुत नहीं किया तो समझा जायगा पूर्व लेख में लिखा था कि उनकी बिल्कुल श्रावश्यकता नहीं कि वे केवल झठे अपराध लगा कर मुझे पाठकोंकी नजरोंमें थी, क्योंकि केवबीमें चार घातिया कर्माका नाश होचुका है. गिराना चाहते हैं। किन्तु उन बातोंके सामने मानेसे स्पष्टत: अतएव उन कर्मोंमें उत्पन्न दोषोंका केवल्ली में प्रभाव