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रत्नकरण्ड और आप्तमीमांसाका एक कर्तृत्व अभी तक सिद्ध नहीं
(लेम्बक-प्रो० हीगलाल जैन, एम० ए० )
१-प्रास्ताविक
"अन्तमें यह लिख देना भी उचित समझता हूँ कि
इनिहाम-विषयके लेखोंको किमी प्रोपेगेन्डेका साधन बनाना रा जो "ग्नकरगर श्रावकाचार और प्राप्तमीमांमाका वर्तृव"
इस क्षेत्रको भी दूषित कर देना होगा । कोई लेख लिखा
और तुरन्त ही उपके नामसे सम्मतियां इकट्ठी करने की शीर्षक लेख अनेकान्त वर्ष ७
वृत्ति शोभन नहीं कही जा सकती । ऐसे लेखोंपर विद्वान् किरण ३-४, ५.६ और ७ ८ में
विशेष ऊहापोह करें यही प्रशस्त मार्ग है, और इसीसे क्रमश: प्रकाशित हुआ था। सम पर पं. दरबारीलालजी न्या.
सत्यके निकट पहुंचा जा सकता है । सम्मतियोंके वलपर
ऐतिहामिक प्रश्नोंके निर्णयकी पद्धति कभी कभी मम्मतियाचार्यका "क्या रखकरण्श्राव
दाताओं को भी श्रममझममें डाल देती है, जैसा कि 'कर्मचार स्वामी समन्तभद्रकी कृति नहीं है?" शीर्षक द्वितीय लेख
काण्डकी टिपनि लेखपर सम्मति देनेवाले अनेक सम्मतिअनेकान्त वर्ष किरण 1.10 और 1.१२ में प्रकाशित
दाताओंको स्वयं अनुभव हुश्रा होगा।"
यह चेतावनी पंडितजीको १६४२ के मितम्बरहमा है और इसीपर यहां विचार किया जाता है।
अक्टुबरमें अनेकान्त वर्ष ५ किरण -६ पृ. ३२८ द्वारा (१क) इतिहास और पसंदगी
मिल चुकी है। किन्तु जान पड़ता है पंडितजीने उमसे कुछ लेखके आदि में ही पंडितजओने अपने पूर्वलेखके संबंध
सीखा नहीं। यदि पंडितजी विचार कर देखेंगे तो उन्हें
या नहीं। में पसंदगी और गैरपसंदगीका जिक्र किया है और कहा है स्वयं जान पडेगा कि ऐतिहासिक व सैद्धान्तिक क्षेत्रमें कि कितने ही विद्वानों को यह पसंद आया, पं० सुमेरचंद सम्मतिसंग्रहद्वारा विजय प्राप्त करनेकी प्रवत्ति श्रेयस्कर जी दिवाकरकी पसंदगीका प्रमाणपत्र भी उद्धृत किया है नहीं है। और फिर यह शिकायत की है-"परन्तु प्रो. सा.को (१ख) मेरे विचारक्षेत्रकी मर्यादायह लेख पसंद नहीं आया।" मेरा पंडितजी सविनय इसके धागे पंडितजीने यह शिकायत की है कि मैंने निवेदन है कि इतिहास क्षेत्र में पसंदगी व नापसंदगीका जो उनके नियुकिकार भद्रबाहु और स्वामी ममन्तभद्रसमायानपयोग कितनी ही बात बता सम्बन्धी लेखका पहले उत्तर न देकर स्नकरण्डके कर्तृत्वको पसंपाती है किन्तु वे असत्य सिहोती है। और संबंधी लेखपर लिखनेका यह कारण दिया था कि "यह अनेक ऐसी घटनाएं हुश्रा करती हैं जो स्वयं इतिहासकार विषय हमारी चिन्तनधारा में अधिक निकटवर्ती ।" उसका को अप्रिय होते हुए भी सत्य और तथ्यके नाते उसे बहुत सोचने पर भी वे रहस्य नहीं समझ सके । किन्तु स्वीकार करनी पड़ती हैं। पंडितजीकी इस ऐतिहासिक रहस्य उसमें कुछ भी नहीं है । ऐतिहासिक चच में भी लेखोंपर सम्मतिसंग्रह और वह भी किसीकी पसंदगी और साम्प्रदायिक विक्षोभ उत्पन्न होते देख मैंने स्वयं अपने किसीकी नापसंदगी विषयक प्रवृत्तिको देखकर मुझे पं. ऊपर या नियंत्रण लगा लिया है कि फिलहाल मैं जो महेन्द्र कुमारजी न्यायाचायके वे शब्द याद भाते हैं जो कुछ जैनपत्रोंके लिये लिखूगा वह विषय व प्रमाण की उन्होंने कोठियाजीके ही उनके एक लेख का उत्तर लिखते दृष्टिसे दिगम्बर जैन इतिहास, साहित्य और सिद्धान्त के हुए कह थे और जो इस प्रकार हैं:
मीता ही रहेगा । बस, इसी प्रारमनियंत्रण के कारण