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आदिपुराणम् ततो सध्यन्दिनेऽभ्यणे दिदीपे तीव्रमंशुमान् । विजिगीषुरिवारूढप्रतापः शुद्धमण्डलः ॥८९॥ सरस्तीरतरुच्छायामाश्रयन्ति स्म पत्रिणः । शरदातपसंतापात् संकुचत्पत्रसंपदः ॥१०॥ हंसाः कलमषण्डेषु पुजीभूतान् स्वशावकान् । पौराच्छादयामासुरसोढजरठातपान् ।।११।। वन्याः स्तम्बेरमा भेजुः सरसीरवगःहितुम् । मदतिषु तप्तासु मुक्ता मधुकरवजैः ॥१२॥ शाग्वाभङ्गैः कृतच्छायाः प्रयान्तो गजयूथपाः । शाखोद्वारमिवातन्वन् खरांशो करपीडिताः ॥१३॥ यूथं वनवराहाणामुपर्युपरि पुञ्जितम् । तदा प्रविश्य वेशन्तमधिशिश्ये सकर्दमम् ॥१४॥ मृणालैरङ्गमावेष्टच स्थिता हंसा विरेजिरे । प्रविटाः शरणायेव शशाङ्ककरपम्जरम् ॥१५॥ चक्रवाकयुवा भेजे घनं शैवलमाततम् । सर्वाङ्गलग्नमुष्णालुर्विनीलमिव क कम् ॥१६॥ पुण्डरीकातपत्रेण कृतच्छायोऽब्जिनीवने । राजहंसस्तदा भेजे हंसीभिः सह मज्जनम् ॥१७॥ विसभङ्गैः कृताहारा मृणालैरवगुण्ठिताः । विसिनीपत्रतल्पेषु शिश्यिरे हंसशावकाः ॥९८॥
इति शारदिकं तीव्र तन्वाने तापमातपे । पुलिनेषु प्रतप्तेषु न हंसा धृतिमादधुः ॥१९॥ हाथियोंके गण्डस्थलोंमें लगकर सिन्दूरकी शोभा धारण कर रही थी ।।८८।। तदनन्तर मध्याह्नका समय निकट आनेपर सूर्य अत्यन्त देदीप्यमान होने लगा। उस समय वह सूर्य किसी विजिगीषु राजाके समान जान पड़ता था क्योंकि जिस प्रकार विजिगीषु राजा प्रताप ( प्रभाव ) धारण करता है उसी प्रकार सूर्य भी प्रताप ( प्रकृष्ट गरमी ) धारण कर रहा था और जिस प्रकार विजिगीषु राजाका मण्डल ( स्वदेश ) शुद्ध अर्थात् आन्तरिक उपद्रवोंसे रहित होता है उसी प्रकार सूर्यका मण्डल ( बिम्ब ) भी मेघ आदिका आवरण न होनेसे अत्यन्त शुद्ध (निर्मल) था ॥८९।। शरद्ऋतुके घामके सन्तापसे जिनके पंखोंकी शोभा संकुचित हो गयी है ऐसे पक्षी सरोवरोंके किनारेके वृक्षोंकी छायाका आश्रय लेने लगे । ९० ॥ जो मध्याह्नकी गरमी सहन करनेमें असमर्थ हैं और इसीलिए जो कमलोंके समूहमें आकर इकट्ठे हुए हैं ऐसे अपने बच्चोंको हंस पक्षी अपने पंखोंसे ढंकने लगे ॥ ९१ ॥ मदका प्रवाह गरम हो जानेसे जिन्हें भ्रमरोंके समूहने छोड़ दिया है ऐसे जंगली हाथी अवगाहन करनेके लिए सरोवरोंकी ओर जाने लगे ॥ ९२ ॥ सूर्यको किरणोंसे पीड़ित हुए हाथी वृक्षोंकी डालियाँ तोड़-तोड़कर अपने ऊपर छाया करते हुए जा रहे थे और उनसे ऐसे मालूम होते थे मानो शाखाओंका उद्धार ही कर रहे हों ॥९३।। उस समय जंगली शूकरोंका समूह कीचड़सहित छोटे-छोटे तालाबोंमें प्रवेश कर परस्पर एक दूसरेके ऊपर इकट्ठे हो शयन कर रहे थे । ९४ ॥ अपने शरीरको मृणालके तन्तुओंसे लपेटकर बैठे हुए हंस ऐसे सुशोभित हो रहे थे मानो अपनी रक्षा करनेके लिए चन्द्रमाकी किरणोंसे बने हुए पिंजड़े में ही घुस गये हों ।। ९५ ।। जो उष्णता सहन करने में असमर्थ है ऐसे किसी तरुण चकवाने अपने सर्व शरीरमें लगे हुए, मोटे-मोटे तथा विस्तृत शेवालको धारण कर रखा था
और उससे वह ऐसा मालम होता था मानो नीले रंगका कुरता ही धारण कर रहा हो ॥१६॥ जिसने कमलिनियोंके वनमें सफेद कमलरूप छत्रसे छाया बना ली है ऐसा राजहंस उस मध्याह्नके समय अपनी हंसियोंके साथ जलमें गोते लगा रहा था ॥ ९७ ॥ जिन्होंने मृणालके टुकड़ोंका आहार किया है और मृणालके तन्तुओंसे ही जिनका शरीर ढंका हुआ है ऐसे हंसोंके बच्चे कमलिनीके पत्ररूपी शय्यापर सो रहे थे ॥ ९८ । इस प्रकार शरद्ऋतुका घाम तीव्र सन्ताप फैला रहा १ मध्याह्नकाले । २ पक्षिणः ल० । ३ पक्ष । ४ शाखाखण्डैः । ५ पल्लवानि गृहीत्वा आक्रोशम् । ६ पल्वलम् । अल्पसर इत्यर्थः । "वेशन्तः पल्वलं चाल्पसरः' इत्यभिधानात । ७ उष्णमसहमानः। 'शीतोष्ण त्रयादशः आलुः'। ८ आच्छादिता।