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सप्तविंशतितमं पर्व
'हरिणीप्रेक्षितेष्वेताः पश्यन्ति सकुतूहलम् । स्वां नेत्रशोभां कामिन्यो बर्हिबर्हेषु मूर्धजान् ॥ ७८ ॥ इत्यनाकुलमेवेदं सैन्यैरप्याकुलीकृतम् । वनमालक्ष्यते विश्वगसंबाधमृगद्विजम् ॥७९॥ जैोऽध्यातपो नायमिहास्मान् देव बाधते । वने महातरुच्छाया नैरन्तर्यानुबन्धिनि ॥ ८० ॥ इमे वनमा भान्ति सान्द्रच्छाया मनोरमाः । त्वद्भक्त्यै वनलक्ष्म्येव मण्डपा विनिवेशिताः ॥ ८१ ॥ सरस्यः स्वच्छसलिला वारितोष्णास्तटदुमैः । स्थापिता वनलक्ष्म्येव प्रप भान्ति क्लमच्छिदः ॥ ८२ ॥ बाणासनाकीर्णमिदं खड्गिभिराततम् । सहीस्तिकमपर्यन्तं वनं युष्मद्वलायते ॥८३॥ इत्थं वनस्य सामृद्ध्यं निरूपयति सारथौ । वनभूमिमतीयाय सम्राङविदितान्तम् ॥८४॥ तदाश्वीयखुरोद्वातादुत्थिता वनरेणवः । दिशां मुखेषु संलग्नास्तेनुर्यवनिका श्रियम् ॥ ८५ ॥ सादिनां वारवाणानि स्मृतान्यपि सितांशुकैः । कापायाणीव जातानि ततानि वनरेणुभिः ॥ ८६॥ वनरेणुभिरालग्नैर्जटीभूतानि योषितः । स्तनांशुकानि वृच्छ्रेण दधुरध्वश्रमालसाः ॥ ८७ ॥ कुम्भस्थलीपु संसक्ताः करिणामध्वरेणवः । सिन्दूरश्रियमातेनुर्धातुभूमिसमुत्थिताः ॥ ८८ ॥
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से एक ओर नहीं हट रहा है ||७|| ये स्त्रियाँ हरिणियोंके नेत्रोंमें अपने नेत्रोंकी शोभा बड़े कौतूहल के साथ देख रही हैं और हरिणोंकी पूँछोंमें अपने केशोंकी शोभा निहार रही हैं ॥ ७८ ॥ जिसमें हरिण पक्षी आदि सभी जीव एक-दूसरेको बाधा किये बिना ही निवास कर रहे हैं ऐसा यह वन यद्यपि सैनिकोंके द्वारा व्याकुल किया गया है तथापि आकुलतासे रहित ही प्रतीत हो रहा है ।। ७९ ।। हे देव, जो बड़े-बड़े वृक्षोंकी घनी छायासे सदा सहित रहता है ऐसे इस वन में रहनेवाले हम लोगोंको यह तीव्र घाम कुछ भी बाधा नहीं कर रहा है ॥ ८० ॥ ये घनी छायावाले वनके मनोहर वृक्ष ऐसे जान पड़ते हैं मानो आपकी भक्तिके लिए वनलक्ष्मी के द्वारा लगाये हुए मण्डप ही हों ॥। ८१|| किनारेपर के वृक्षोंसे जिनकी सब गरमी दूर कर दी गयी है ऐसे स्वच्छ जलसे भरे हुए ये छोटे-छोटे तालाब ऐसे मालूम होते हैं मानो वनलक्ष्मीने क्लेश दूर करनेवाली प्याऊ हो स्थापित की हों ॥ ८२ ॥ हे प्रभो, यह वन आपकी सेनाके समान जान पड़ता है क्योंकि जिस प्रकार आपकी सेना बहुत से बाणासन अर्थात् धनुषोंसे व्याप्त है उसी प्रकार यह वन भी बाण और असन जातिके वृक्षोंसे व्याप्त है, जिस प्रकार आपकी सेना खड्गी अर्थात् तलवार धारण करनेवाले सैनिकोंसे हुई है उसी प्रकार यह वन भी खड्गी अर्थात् गैंडा हाथियोंसे भरा हुआ है, जिस प्रकार आपकी सेना हाथियोंके समूह से सहित है उसी प्रकार यह वन भी हाथियोंके समूह से सहित है और जिस प्रकार आपकी सेनाका अन्त नहीं दिखाई देता उसी प्रकार इस वनका भी अन्त नहीं दिखाई देता ||८३ || इस प्रकार सारथिके वनकी समृद्धिका वर्णन करते रहनेपर सम्राट् भरत उस वनभूमिको इस तरह पार कर गये कि उन्हें उसकी लम्बाईकां पता भी नहीं चला ॥ ८४ ॥ उस समय घोड़ोंके समूहके खुरोंके आघात से उठी हुई वनकी धूलि समस्त दिशाओं में व्याप्त होकर परदेकी शोभा धारण कर रही थी ।। ८५ ।। घुड़सवारोंके कवच, यद्यपि ऊपरसे सफेद वस्त्रोंसे ढंके हुए थे तथापि वनकी धूलिसे व्याप्त होने के कारण ऐसे मालूम पड़ते थे मानो कषाय रंगसे रंगे हुए ही हों ॥ ८६ ॥ मार्ग के परिश्रमसे अलसाती हुई स्त्रियाँ वनकी धूलि लगनेसे भारी हुए स्तन ढँकनेवाले वस्त्रोंको बड़ी कठिनाई से धारण कर रही थीं ॥ ८७ ॥ गेरू रंगकी भूमिसे उठी हुई मार्गकी धूलि
भरी
'प्रपा पानीयशालिका' १ लोचने । २ पक्षी । ३ प्रवृद्धः । ४ तत्र भजनाय । ५ पानीयशालिकाः । इत्यभिधानात् । ६ झिण्डि सर्जक, पक्षे चाप । ७ गण्डमृगैः, पक्षे आयुधिकैः । ८ उभयत्रापि गजसमूहम् । ९ अज्ञातान्तरमधियंस्मिन्नत्यकर्मणि । १० अश्वारोहकाणाम् । 'अश्वारोहास्तु सादिनः' इत्यभिधानात् । ११ कञ्चुकाः । कञ्चुको वारवाणोऽस्त्री' इत्यभिधानात् । १२ युतानि । १३. कषायरञ्जितानि । १४ गैरिक ।
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