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की प्राप्ति तक पहुँच कर ही विश्राम ले साधक का ऐसा सुदृढ़ संकल्प बनना चाहिये और चिन्तन का यह सम्पूर्ण विषय साधक के आचरण में उतरता जाना चाहिये ।
अपने अतीत का स्मरण करते समय साधक विगतकालीन अपनी कलुषित वृत्तियों का चिन्तन भी करे तो साथ-साथ उनका शोधन भी करता जाय। आदर्श लक्ष्य का स्मरण करते हुए वह परमात्म भाव के साथ तादात्म्य स्थापित करने की प्रेरणा भी ले तो अपने आत्म भाव को ऊर्ध्वगामी बनाने का पुरुषार्थ भी साधे । चिन्तन की गहराइयों में उतर कर वह विशुद्धतम मनःस्थिति का सृजन भी करे तो अपने कृर्तत्त्व की ऊर्जा को भी यनरत बनावे। इसके लिये उसे समीक्षण ध्यान के तीनों आयामों की साधना करते समय संकल्प की शक्ति, वातावरण की विशुद्धि, समय की नियमितता और विचारों की प्रांजलता को अपने सहयोगी अंगों के रूप में स्वीकार करना चाहिये। यह याद रहे कि समीक्षण ध्यान में सफलता प्राप्त करने के लिये सबसे पहले आवश्यकता होती है आत्म विकास की गहरी प्यास । यह पिपासा जितनी तीव्र होगी, ध्यान प्रयोग के प्रति उस की अभिरुचि भी उतनी तीव्र बनेगी। पूर्ण अभिरुचियुक्त पिपासा के साथ जो भी सत्कार्य हाथ में लिया जायेगा, उसकी सफलता असंदिग्ध बन जायेगी ।
यहाँ पर यह स्पष्ट कर दें कि उद्देश्य दृष्टि की परिपूर्णता के प्रतिपादन के बावजूद यहाँ पर समीक्षण ध्यान का जो विधिक्रम बताया गया है, उसे एक वर्ष के अभ्यास का विधिक्रम ही मानें। पूरे वर्ष की साधना के बाद साधक के लिए आगे के मार्गदर्शन की अपेक्षा रहेगी। क्योंकि अपनी वर्ष भर की साधना साधक के समक्ष कौन-कौनसे और कैसे-कैसे व्यवधान उपस्थित हुए, उसकी समीक्षा करके ही उसके लिये भावी विधिक्रम का निर्धारण करना पड़ेगा। इस मार्गदर्शन से वह अपने अगले चरण में व्यवस्थित रूप से गति कर सकेगा। जब वह इस त्रिआयामी समीक्षण ध्यान साधना में स्वस्थ गति ग्रहण कर लेगा तब वह अपने भावी कार्यक्रम के निर्धारण में भी योग्य बन जायगा ।
साधक इस संकेत को अपने हृदय का तलस्पर्शी बनावे कि समीक्षण ध्यान का यह प्रतिपादन अथवा उसका स्वयं का चिन्तन मात्र विचारों तक ही सीमित न रह जाय । यह प्रयोगात्मक रूप से उसके आचरण में उतरे तथा जीवन में एकीभूत हो जाय । साधना के उसके प्रत्येक चरण में सजगतापूर्वक समर्पण की भावना का निर्माण हो जाय तथा वह यथार्थ कार्यान्वय में ढल जाय तो उसकी मनःशक्ति तथा आत्मशक्ति के भव्य द्वार खुल सकते हैं जिनमें प्रवेश करके वह सम्पूर्ण मुक्ति के चरम लक्ष्य तक पहुँच सकता है।
इस बात की गाँठ बाँध लें कि आम जनता के सामने साधना विषयक शब्दात्मक चर्चा करके ही न रह जाना महत्त्वपूर्ण नहीं है। अपितु ध्यान-साधना को पहले अपने जीवन में प्रेक्टिकल रूप देकर तथा स्वयं को आम जनता के सामने उस साधना के आदर्श रूप में रखना महत्त्वपूर्ण है । कई लोग इस साधना को अपने जीवन में न उतार पाने के हजार बहाने ढूंढ लेते हैं, ऐसे लोग जब साधना की चर्चा करते हैं तो वह मात्र वाणी- विलास बन जाता है।
समीक्षण ध्यान साधना अथवा किसी भी सत्साधना का यही वास्तविक अर्थ मानना चाहिये कि उस साधना के बल पर जीवन में फैल रही अन्तर एवं बाह्य विकृत वृत्तियों का रूपान्तरण हो तथा साध्य की निकटता बने। यह लक्ष्य अवश्य पूरा हो सकता है बशर्ते कि उपरोक्त प्रयोग विधि
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