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सूत्र छठा मैं पराक्रमी हूं, पुरुषार्थी हूं। मेरी आत्मा अपने मूल गुण की दृष्टि से अनन्त पराक्रम एवं अनन्त पुरुषार्थ को धारण करती है, भले ही उसकी यह धारणा-शक्ति वर्तमान में आच्छादित बनी हुई है। मैं उसे प्रकट कर सकता हूं और इसी पराक्रम एवं पुरुषार्थ के माध्यम से मैं अपनी आत्मा को इस मूल गुण से सुशोभित बना सकता हूं।
मैं पराक्रमी हूं, पुरुषार्थी हूं। मेरा पराक्रम अटूट है और पुरुषार्थ अथक । मैं मेरे पराक्रम को अटूट इसलिये कहता हूं कि वह वज्र के समान हैं। जैसे वज्र कभी टूटता नहीं और अपुरुषार्थ पर गिरे, उसे तोड़े बिना रहता नहीं, वैसे ही मेरा पराक्रम स्वयं कभी खंडित नहीं होता और अपुरुषार्थ के प्रति वह प्रायोजित हो जाता है, उसे अखंडित रखता नहीं। (यह एक देशीय उपमा
है।)
____ मैं पराक्रमी हूं क्योंकि मैं पुरुषार्थी हूं। मेरा पौरुष अपनी गति और प्रगति की कोई सीमाएं नहीं जानता। वह समतल भूमि पर ही चलने में समर्थ नहीं है, अपितु आकाश की अनन्त ऊंचाइयों पर और सागर की अतल गहराइयों में भी उसी वेग से बढ़ता चला जाता है। वह कभी हार नहीं मानता। मेरा पुरुषार्थ अपराजेय है।
मैं पुरुषार्थी हूं—पुरुषार्थ ही मेरा धर्म है, प्रमाद मेरा धर्म नहीं -स्वभाव नहीं, विभाव है। कषाय आत्मा से प्रमाद आता है तो मेरी ज्ञान आत्मा उसे पुरुषार्थ में नियोजित करने का आह्वान करती है और सम्यक् ज्ञान आत्मा दर्शन आत्मा चरित्र आत्मा आदि से जुड़ कर वह आत्मा विकास की महायात्रा में गतिशील बनता है और मानव जीवन को अपने गंतव्य के निकट पहुंचाता है।
मैं पुरुष हूं इसी कारण पुरुषार्थी हूं। यहाँ पुरुष शब्द लिंगवाचक नहीं, गुणवाचक है। जो भी पौरुष को धारण करता है, वह पुरुष होता है। लिंग के वाच्यार्थ से सोचें तो कोई पुरुष होकर भी पुरुष नहीं होता, जबकि कोई पुरुष न होकर भी पुरुष बन सकता है। पुरुष का मूल गुण उसका पौरुष होता है। मैं पौरुष का धनी हूं, इसीलिये पुरुष हूं और पुरुष हूं तो पुरुषार्थ मेरा धर्म
हैं।
__ पौरुष एक गुण होता है, एक शक्ति होती है। उस शक्ति का प्रयोग और उपयोग कहां और किस प्रयोजन हेतु किया जाय—यह सम्यक् ज्ञान, सुदृढ़ आस्था एवं सद्विवेक पर निर्भर है। जब आकाश में सूर्य चमक रहा हो तो उस जाज्वल्यमान प्रकाश में अपना छोटा-सा टिमटिमाता दिया लेकर चलने में कोई बुद्धिमानी नहीं। उस समय सूर्य के प्रकाश का उपयोग ही श्रेयस्कर होगा। वीतराग देवों ने पथ प्रशस्त कर रखा है कि आत्मा को अपना पुरुषार्थ किस दिशा में लगाना चाहिये? मझे उसी प्रशस्त पथ को अपनाना है तथा अपने परुषार्थ को उसी पथ पर गति करने में लगाना है। इस कारण मेरे पुरुषार्थ के सामने शंका या सन्देह का कोई प्रश्न ही नहीं है। उसे जागना
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