Book Title: Aatm Samikshan
Author(s): Nanesh Acharya
Publisher: Akhil Bharatvarshiya Sadhumargi Jain Sangh

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Page 465
________________ ममता (ममत्व) को घटाने वाले जितने सार्थक प्रयास किये जायेंगे व्यक्तिगत एवं सामूहिक दोनों स्तरों पर, उतनी ही समता की सृष्टि सर्जित होती हुई चली जायगी। समता के ऐसे चहुंमुखी विकास के लिये समता के मूल्यों को आत्मसात् कर लेने के साथ समता की दृष्टियों का भी यथार्थ ज्ञान कर लिया जाना चाहिये । प्रधानतः समता की दो दृष्टियां मानी जाती हैं। पहली आभ्यन्तर दृष्टि तो दूसरी बाह्य दृष्टि। ये दोनों दृष्टियां एकदम पृथक्-पृथक् नहीं होती हैं, बल्कि दोनों दृष्टियां अधिकांशतः एक दूसरे की पूरक भी होती रहती हैं। कारण, दोनों प्रकार की दृष्टियों का धारक दृष्टा व्यक्तिशः एक ही होता है, अतः दोनों दृष्टियों का सामंजस्यपूर्ण सहयोग भी समता की पृष्ठभूमि को सुदृढ़ बनाता है। ___इस तथ्य में कोई विवाद नहीं कि किसी भी सामूहिक सुकृति अथवा दुष्कृति का आरंभ व्यक्ति रूपी घटक से ही होता है तथा व्यक्ति का वह सुकृति अथवा दुष्कृति रूपी कार्य बाहर क्रियान्वित होने से पहिले उसके हृदय में विचार रूप में जन्म लेता है। इस रूप में मनुष्य के ही हत्तल से विषमता भी फूटती है तो उसी हत्तल पर प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप में विद्यमान समता भी वहीं से पल्लवित एवं पुष्पित होती है। किसी भी बाह्य कार्य का कारण सदैव आभ्यन्तर के अनुभाव में पैदा होता है। अतः इस दृष्टि से दोनों दृष्टियों में आभ्यन्तर दृष्टि का महत्त्व ही अधिकतर माना जायगा। इस महत्त्व का सही अंकन यही हो सकता है कि समता को व्यापक रूप से प्रसारित करने का कोई भी अभियान मानव हृदय से आरंभ किया जाना चाहिये, जिसका सम्यक् परिवर्तन ही सम्पूर्ण विषम परिस्थितियों में या यों कहें कि जड़ग्रस्त वृत्तियों तथा प्रवृत्तियों में शुभ परिवर्तन का बीजारोपण कर सकता है। समता स्वभावगत होने से सत्य होती है और विभावरूप विषमता असत्य । इस सत्य का उद्घाटन उसी आन्तरिकता में किया जा सकता है और किया जाना चाहिये जहां सत्य आवृत्त और आछन्न बनकर दबा हुआ पड़ा है। इस का अर्थ है कि उस आन्तरिकता में आत्मीय अनुभूति का संचार किया जाय। आत्मीय अनुभूति यह कि संसार की सभी आत्माएं अपने मूल स्वरूप से एक हैं तथा संसार परिभ्रमण में कहीं न कहीं किसी न किसी रूप में सम्बन्धित रहने के कारण प्रत्येक आत्मा अपनी आत्मीय भी है। आत्मीयता की इस अनुभूति से ममता घटेगी कि सब कुछ मेरे ही लिये क्यों? सब पदार्थ सबके लिये हैं और जब सभी परस्पर आत्मीयता के सूत्र से बंधे हुए हैं तो उन पदार्थों का उपभोग भी सबके लिये सुलभ क्यों न हो? ममता घटेगी तो समता बढ़ेगी कि सब पदार्थ ही क्यों, मैं स्वयं भी सबका हित क्यों नहीं साधूं ? सबका हित साधने का संकल्प ही स्व-कल्याण और सर्वस्व त्याग की भूमिका बनाता है। एक हृदय के समत्व स्वभाव को भी यदि उभार कर क्रियाशील बना दिया जाता है तो वह एक बुनियादी काम होगा। एक की आभ्यन्तर दृष्टि में आया हुआ शुभ परिवर्तन न केवल उस व्यक्ति के वचन और व्यवहार को समता का जामा पहिनाएगा, बल्कि उस व्यक्ति की आभ्यन्तर दृष्टि में आया वह परिवर्तन उसकी बाह्य दृष्टि में उतरेगा तथा वह अन्यान्य कई व्यक्तियों को दोनो दृष्टियों से प्रभावित बनाएगा। बाह्य दृष्टि में सुप्रकट समता का स्वरूप उन अनुभव लेने वाले व्यक्तियों की आभ्यन्तर दृष्टि में उतरेगा और उनकी आन्तरिकता में भी समता के समर्थन में एक सफल आन्दोलन चलेगा। आभ्यन्तर और बाह्य दृष्टियों की प्रक्रिया के चक्र में प्रवाहित होता हुआ समता का अनुभाव जब व्यक्ति और समाज की कृति में उतरेगा, तब जो नवनिर्माण होगा, उसी की नींव पर समतावादी समाज की रूपरेखा को साकार रूप दिया जा सकेगा। ४४०

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