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एक समतादर्शी साधक इन उच्चस्थ नियमों को अपने जीवन में रमा ले : (अ) समस्त प्राणीवर्ग को निजात्मा के तुल्य समझना तथा आचरना एवं समग्र आत्मीय शक्तियों के विकास में अपने जीवन के विकास को देखना । अपनी सामान्य विषमताभरी प्रवृतियों को भी त्यागते हुए अपना जीवनादर्श स्थापित करना एवं सबमें समता पूर्ण वृत्तियों तथा प्रवृत्तियों के विकास को बल देना । (ब) आत्मविश्वास की मात्रा को इतनी सशक्त बना लेना कि न अन्य प्राणियों के साथ और न स्वयं के साथ जाने या अनजाने में विश्वासघात की स्थिति पैदा हो। (स) जीवन क्रम के चौबीसों घंटों में समतामय भावना तथा आचरण का विवेकपूर्वक अभ्यास करना एवं जो कुछ करता रहे उसकी नित्यप्रति विशुद्ध भाव से आत्मालोचना भी अवश्य करना । (द) प्रत्येक प्राणी के प्रति सौहार्द्र, सहानुभूति एवं सहयोग रखते हुए दूसरों के सुख दुःख को अपना सुख दुःख समझना तथा पर दुःख निवारण की शुभता में प्रवृत्त रहना । (य) सामाजिक न्याय का लक्ष्य ध्यान में रखकर चाहे राजनीतिक या आर्थिक क्षेत्र में हो अथवा अन्य किसी भी क्षेत्र में - सदा आत्म बल के आधार पर अन्याय की शक्तियों से संघर्ष करना एवं अहिंसक असहयोग एवं अहिंसामय प्रयोग से सुधार लाने का प्रयास करते हुए समता के समस्त अवरोधों पर विजय प्राप्त करना। (र) चेतन व जड़ तत्त्वों के पृथकत्व को समझकर जड़ पदार्थों पर से ममत्व हटाना, सर्वत्र जड़ तत्त्वों की प्रधानता दूर करने में सक्रिय योगदान करना तथा चेतना को स्व-धर्म मानकर उसकी विकासपूर्ण समता में अपने समग्र जीवन को नियोजित कर देना । (ल) अपने जीवन में और बाहर के वातावरण में राग और द्वेष दोनों को संयमित करते हुए सर्व प्राणियों में समदर्शिता का अविचल भाव ग्रहण करना तथा अपनी चिन्तन धारा में उसे स्थायित्व देना । समदर्शिता की अवाप्ति को जीवन की समस्त उपलब्धियों का सार समझकर उस दिशा में एकनिष्ठा के साथ अग्रसर होते रहना ।
समता साधना की इन तीनों श्रेणियों को इस रूप में देखना और समझना चाहिये कि तीसरी श्रेणी का समुचित विकास साध लेने पर साधुत्व की स्थिति सन्निकट आ जाती है । तीसरी श्रेणी को गृहस्थ धर्म के सर्वोच्च विकास के रूप में देख सकते हैं। ये जो तीनों श्रेणियों के नियम बताये गये हैं, इनके अनुरूप एक से दूसरी तथा दूसरी से तीसरी श्रेणी में आगे बढ़ने की दृष्टि से प्रत्येक साधक को अपना आचरण विचार एवं विवेक पूर्ण पृष्ठभूमि के साथ सन्तुलित एवं संयमित बनाते रहना चाहिये ताकि समता व्यक्ति के मन में और समाज के जीवन में चिरस्थायी स्वरूप ग्रहण कर सके । यही आत्म कल्याण एवं विश्व कल्याण का प्रेरक पाथेय है। समता साधना के इस क्रम को व्यवस्थित एवं अनुप्रेरक रूप देने की दृष्टि से एक समता समाज की स्थापना का निर्णय भी लिया जा सकता है तथा चाहे छोटे पैमाने से ही प्रारंभ किया जाय — उसके नियमोपनियमों का निर्धारण किया जा सकता है। ऐसा समता समाज सीमित सदस्यों के साथ ही भले प्रारंभ किया जाय किन्तु उन सदस्यों को गहरे दायित्व भाव से अपनी प्रवृत्तियों का संचालन करना होगा। क्योंकि वे समूचे समता दर्शन एवं व्यवहार के ज्योतिधारक तथा संदेशवाहक होंगे।
समता समाज की वैचारिक रूपरेखा
यह सत्य है कि किसी भी तत्त्व की आन्तरिकता ही मूल में महत्त्वपूर्ण होती है, किन्तु उसे अधिक प्राभाविक, अधिक बोधगम्य तथा अधिक कार्यक्षम बनाने के लिये उसके बाह्य स्वरूप की रचना करनी होती है। अपनी गंभीर आन्तरिकता को लेकर जब बाह्य स्वरूप प्रकट होता है तो वह
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