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बन्द कर उनकी रक्षा करने का संकल्प लेना । (ल) सामाजिक कुरीतियों को त्याग कर विषमताजन्य वातावरण को मिटाना तथा समतामयी नई परम्पराएं ढालना ।
(२) समताधारी - समता के दार्शनिक एवं व्यावहारिक धरातल पर सक्रिय बनकर जो दृढ़ चरणों से चलना आरंभ कर दें, उन्हें समताधारी की दूसरी उच्चतर श्रेणी में लिया जाय । समताधारी साधक समता के चारों दर्शनों— सिद्धान्त, जीवन आत्म एवं परमात्म को हृदयंगम करके व्यवहार के इक्कीस सूत्रों के आचरण पथ पर रचनात्मक प्रगति प्रारंभ कर देता है और निरन्तर प्रगतिशील रहता है । एक प्रकार से समतामय आचरण की सर्वांगीणता एवं सम्पूर्णता की ओर जब साधक गति करने लगे तो उसे समता धारी कहा जाय ।
समताधारी साधकों की इस श्रेणी का विशिष्ट महत्त्व माना जाय, क्योंकि ये साधक ही वास्तव में तथा जनता की आंखों में समता की मशाल चमकाकर चलने वाले साधक होंगे, इन्हें और इनके आचरण को प्रत्यक्ष देखकर ही दूसरे लोग इनके प्रति तथा समता के प्रति प्रभावित बनेंगे । इस श्रेणी के साधकों का इस दृष्टि से दायित्व भी गंभीर होगा क्योंकि उनकी छोटी असावधानियां या भूलें भी समता के लक्ष्य को दुर्बल बना सकती हैं और जनता की नजरों उसके प्रति प्रभाव को कम कर सकती हैं । अतः समताधारी निम्न अग्रगामी नियमों का अनुपालन करें - ( अ ) विषमता जन्य अपने विचारों, संस्कारों एवं आचारों को स्वयं समझना तथा उन्हें विवेकपूर्वक दूर करना । अपने आचरण से किसी भी प्राणी या उसके किसी भी प्राण को क्लेश नहीं पहुंचाना तथा सबके साथ सहानुभूति रखना । ( ब ) धन, सम्पत्ति तथा सत्ता प्रधान व्यवस्था के स्थान पर समतापूर्ण चेतना एवं कर्त्तव्य-निष्ठा को मुख्यता देना । (स) अहिंसा, सत्य, अस्तेय, ब्रह्मचर्य, अपरिग्रह एवं अनेकान्तवाद के स्थूल नियमों का पालन करना, उनकी मर्यादाओं में उच्चता प्राप्त करना तथा भावना की सूक्ष्मता तक गहरे पैठने का वैचारिकता के साथ प्रयास करते रहना । ( द ) समस्त जीवनोपयोगी पदार्थों के समवितरण में आस्था रखना एवं व्यक्तिगत रूप से इन पदार्थों का यथा विकास, यथा योग्य जनकल्याणार्थ अपने पास से परित्याग करना । (य) परिवार की सदस्यता से लेकर ग्राम, नगर, राष्ट्र एवं विश्व की सदस्यता को निष्ठापूर्वक आत्मीय दृष्टि तथा सहयोगपूर्ण आचरण से अपने उत्तरदायित्वों के साथ निभाना । (२) जीवन में जिस किसी पद पर या कार्य क्षेत्र में प्रवृत्त हों वहां भ्रष्टाचरण से मुक्त रहकर समताभरी नैतिकता एवं प्रामाणिकता के साथ कुशलता से कार्य करना । (ल) स्व-जीवन में संयम को तो सामाजिक जीवन में सर्वदा नियमों को प्राथमिकता देना एवं अनुशासन को प्रतिष्ठित बनाना ।
(३) समतादर्शी - समतादर्शी की श्रेणी में साधक का प्रवेश तब माना जाय जब वह समता के लिये बोलने और धारने से आगे बढ़कर संसार, राष्ट्र व समाज को समतापूर्ण बनाने व देखने की क्षमता प्राप्त करने लगे – दृष्टित्व को कृतित्व के साथ जोड़ने लगे। तब वैसा साधक अपने व्यक्तिगत व्यक्तित्व से ऊपर उठकर स्वयं एक समाज, संगठन, संस्था या आन्दोलन का रूप ले लेता है, क्योंकि तब उसका लक्ष्य परिवर्तित निजत्व को व्यापक परिवर्तन में समाहित कर लेना बन जाता है । ऐसा साधक साधुत्व के सन्निकट पहुंच जाता है जहां वह स्वहित को भी परहित में विलीन कर देता है तथा सम्पूर्ण समाज में सर्वत्र समता लाने के लिये जूझने लग जाता है । वह समता का वाहन बना रहने की बजाय तब समता का वाहक बन जाता है।
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