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यह निश्चय करूं कि मैं दूसरे प्राणियों के हितों की रक्षा के लिये अपने हितों को भी छोड़ दूंगा, अपितु अपने सर्वस्व तक को न्यौछावर कर दूंगा। ज्यों-ज्यों त्याग सामान्य बिन्दु से विशेषता की सीढ़ियां चढ़ता हुआ ऊपर उठता जाता है, त्यों-त्यों समता की समरसता भी भीतर, बाहर और चारों ओर दूर-दूर तक फैलती जाती है तथा छोटे बड़े सभी स्तरों के मनुष्यों एवं प्राणियों तक के बीच में सबको सुख देने वाला वातावरण रच देती है। यों कह दें कि त्याग समता का पीठ बल होता है जिसके बिना समता की सुस्थिर प्रतिष्ठा संभव नहीं है। इसलिये समता का सिद्धान्त दर्शन सभी मानवीय मूल्यों के हृदय रूप त्याग में प्रतिष्ठित किया जा सकता है।
आत्मीय गुणों का सार गूंथ कर समता के सिद्धान्त दर्शन की सप्तवर्णी पुष्प माला बनाई गई है जो इस प्रकार है—(अ) आत्मीय समता-अपने मूल स्वरूप में और विकास के चरम में सभी आत्माओं में समता विद्यमान है और उसकी अनुभूति आत्मीय समता को प्रेरित करती है। इस आत्मिक स्वरूप के आधार पर मनुष्य में यह स्वभान जागना चाहिये कि वह किसी भी प्रकार से शूद्र या हीन नहीं है। वह कर्मावरणों को हटाकर अपनी आत्मा को मूल रूप में प्रतिष्ठित करने की क्षमता रखता है। उस में कर्मण्यता का भाव जागना चाहिये कि वह सिद्धात्माओं की समता में पहंचने का सत्पुरुषार्थ करे। अपने से ऊपर की आत्माओं के साथ समता प्राप्त करने का वह पराक्रम दिर नीचे के स्तर पर रही हुई आत्माओं पर अपनी करुणा बरसा कर उन्हें भी समता का महत्त्व सिखावें
और अपना आश्रय देकर ऊपर उठावे। यही आत्मीय समता के सिद्धान्त का मर्म है। समता के सिद्धान्त दर्शन का इस प्रकार पहला सिद्धान्त यह होगा कि सभी आत्माओं के लिये अपना परम विकास तक सम्पादित करने में अवसर की समानता है—कोई विषमता या विभेदपूर्ण स्थिति नहीं है। जो भी ज्ञान और क्रिया के सच्चे रास्ते पर आगे बढ़ेगा, निरपेक्ष भाव से श्रेष्ठता अर्जित करेगा तथा संसार के समस्त प्राणियों का हिताकांक्षी बनेगा, वह स्वयं समता पाएगा और बाहर समता फैलाएगा। वह समत्व योगी बन जायगा। (ब) 'दु' का परित्याग-आत्मीय समता को उपलब्ध करने के लिये अपने सम स्वभाव का निर्माण होना चाहिये और सम स्वभाव के निर्माण के लिये मन, वाणी एवं कर्म की एकरूपता तथा शुभता आवश्यक है। अपना सोचना, अपना बोलना और अपना करना अपनी मनःस्थिति को व्यक्त करता है जिसकी समता की कसौटी यही होगी कि इन तीनों में समानता है। मन, वाणी तथा कर्म की एकरूपता से ही किसी की विश्वसनीयता तथा प्रतिष्ठा का आधार बनता है और उसे भद्र पुरुष कहा जाता है। किन्तु जो सोचता एक बात है और बोलता दूसरी बात है तथा करता तीसरी बात है—उसको धूर्त कहा जाता है तथा उसका विश्वास कोई नहीं करता।
___मन, वाणी और कर्म की समता बनेगी उनकी शुभता से और शुभता के लिये 'दु' का परित्याग करना होगा। दुर्भावना, दुर्वचन और दुष्प्रवृत्ति रूप अशुभ योग व्यापार जब तक चलता रहता है, पूर्ण शुभता नहीं आती और पूर्ण समता अवाप्त नहीं होती । समता का अर्थ है संसार के सभी प्राणियों के प्रति सद्भावना और भावना सद् होगी, तभी वचन और कर्म सद् बन सकेगा। सद् बनाने से असद् छूटेगा, शुभ वरने से अशुभ मिटेगा और विषमता को दूर हटाने से समता जागेगी तथा यह तथ्य-परिवर्तन होना चाहिये समस्त योग व्यापार में। योग व्यापार की शुभता और समता आन्तरिकता से लेकर विश्व के विस्तृत वातावरण तक प्रभावशाली बनेगी। भावना ही वह शक्ति है जो मनुष्य के 'दु' को धोकर उसे सत्साधना में कर्मनिष्ठ बनाती है तथा 'सु' से विभूषित कर देती
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