Book Title: Aatm Samikshan
Author(s): Nanesh Acharya
Publisher: Akhil Bharatvarshiya Sadhumargi Jain Sangh

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Page 470
________________ भी दिखानी चाहिये। ऐसा संकट काल हो अथवा शुभ प्रयोजन की पूर्ति में आवश्यक हो तो व्यापक जन कल्याण की भावना से अपने पास जो कुछ हो, उसे त्यागने में भी तनिक हिचकिचाहट नहीं होनी चाहिये। इस प्रकार की वत्ति में आस्था होने का यही आशय है कि समता साधक अपनी संचित सम्पत्ति में ममत्व न रखे बल्कि उसे भी समाज का न्यास समझे तथा यथावसर संविभाग हेत समाज को समर्पित करदे। जन कल्याण का अर्थ भी काफी व्यापक दृष्टि से समझना चाहिये। जैसे अकाल आदि का प्राकृतिक संकट हो, लोग धनाभाव में भूख से मर रहे हो और समता साधक अपनी सम्पत्ति को दबा कर बैठा रहे तो यह उसकी समता साधना नहीं होगी। सामूहिक हित को व्यक्ति के हित से ऊपर मानना होगा। सामूहिक हित साधना में व्यक्ति के त्याग को सदा ही प्रोत्साहित किया जाना चाहिये। सामाजिक व्यवस्था को सर्वजन हितकारी इसी निष्ठा के साथ बनाई जा सकती है। समता का सिद्धान्त दर्शन तो संपरित्याग की आस्था को मनुष्य के मन में अधिकाधिक विकसित रूप में देखना चाहेगा क्योंकि यह आस्था जितनी गहरी होगी, उतनी ही सम्पत्ति और सत्ता के प्रति मनुष्य की मूर्छा क्षीण होगी। इसका सीधा प्रहार विषमता पर होगा जिससे अर्थ लोलुप परम्पराएं मिटेगी, वितृष्णाजन्य वृत्तियाँ बदलेगी और सामूहिक जीवन में सरसता की नई शक्तियों का उदय होगा। समाज की आर्थिक व्यवस्था यदि सम बन जाती है तो सही जानिये कि व्यक्ति व्यक्ति का चारित्र भी शुभता और शुद्धता का वरण करने लगेगा। (य) गुण और कर्म का आधार - वर्तमान युग अर्थ प्रधान बना हुआ है तथा इसमें श्रेणी, विभाग या वर्गीकरण आदि का आधार अर्थ ही बना हुआ है। अर्थ ही व्यक्ति की प्रतिष्ठा का मानदंड बना हुआ है किन्तु समता की साधना में यह सब मान्य नहीं हो सकता। जब अर्थ को जीवन के शीर्षस्थ स्थान से नीचे उतार दिया जाय और मानवीय मूल्यों से उसे नियंत्रित कर दें तो वर्तमान समाज का सारा ढांचा ही बदल जायगा। जब अर्थ नीचे उतरेगा तो स्वयं ही गुण ऊपर आ जायगा और यही समता के सिद्धान्त दर्शन को अभीष्ट है कि समाज के सारे मानदंड गुणाधारित हो। राजनैतिक, आर्थिक एवं सामाजिक समता के परिवेश में तब धन सम्पत्ति के आधार पर श्रेणी विभाग नहीं होगा, अपितु गुण एवं कर्म के आधार पर समाज का श्रेणी विभाजन होगा। ऐसा विभाजन मानवता का तिरस्कार करने वाला नहीं होगा बल्कि समता के लक्ष्य की ओर बढ़ाने के लिये स्वस्थ प्रतिस्पर्धा का अवसर देने वाला होगा। एक बात तब और होगी। अर्थ के नियंत्रण में जब चेतना शक्ति सजग रहेगी तो वितृष्णा की जड़ता कभी पैदा नहीं होगी। वैसी दशा में वह अर्थ भी समाज सुधार में सहायक बन जायगा। __इस कारण सिद्धान्त रूप से एक समता साधक का गुण व कर्म के आधार पर श्रेणी विभाग में विश्वास होना चाहिये। गुण और कर्म का आधार किस रूप में हो—इसे भी समझ लेना चाहिये। समाज में ऊंची श्रेणी, ऊंचा आदर और ऊंची प्रतिष्ठा उसे मिलनी चाहिये जिसने अपने जीवन में ऊंचे मानवीय गुणों का सम्पादन किया हो और जिसके कार्य सदा लोकोपकार की दिशा में गतिशील रहते हों। गुण कर्म युक्त विभाजन का यह सुप्रभाव होगा कि नीचे की श्रेणियों वाला स्वयं अधिक गुणार्जन के साथ ऊपर की श्रेणी में चढ़ने का सत्प्रयास करता रहेगा। गुण और कर्म ही मनुष्यता की महानता एवं समाज की प्रतिष्ठा के प्रतीक हों तथा पौद्गलिक उपलब्धियां उनके समक्ष हीन दृष्टि से देखी जाय यही वांछनीय है। गुणाधारित समाज एक कर्मनिष्ठ समाज होगा और उसमें सर्वांगीण समता की साधना सुलभ हो जायगी। ४४५

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