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अनीतिपूर्ण कहलायगा। इस दृष्टि से अपनी अर्जक वृत्ति में नैतिकता का निर्वाह किया ही जाना चाहिये जिसके बिना समता का विस्तार संभव नहीं होता।
(१४) यथायोग्य सम वितरण समता साधक अपने पास आवश्यकता से अधिक धन, धान्य अथवा अन्य पदार्थ न रखे तथा उन्हें यथायोग्य सम वितरण हेतु समाज या राष्ट्र को सौंप दें अथवा स्वयं जन कल्याण में नियोजित कर दें। आवश्यकताओं का भी जहां तक प्रश्न है, वे एक समता साधक की निरन्तर घटती रहनी चाहिये और जीवन निर्वाह में अधिकाधिक सादगी आती रहनी चाहिये। इस विधि से धन सम्पत्ति के प्रति कभी ममत्व पैदा नहीं होगा। जो मन से लेकर मनुष्य के कर्म तक विषमता का विष फैलाता है, वह होता है धन सम्पत्ति रूप परिग्रह और उससे भी अधिक विषम होती है परिग्रह की लालसा । अतः आवश्यकता तक परिग्रह को सीमित कर लेने से उसके प्रति ममत्व नहीं जागता। इस दृष्टि से न्यूनतम आवश्यकताओं के अनुसार एक समता साधक समुचित परिग्रह अपने पास रखें और उसे भी पूर्वनिश्चित मर्यादाओं की अपेक्षा से ताकि बाकी को न्यास समझे तथा यथायोग्य रीति से जन कल्याण में उसका सम वितरण कर दे।
(१५) आध्यात्मिकता का रंग नैतिक एवं मर्यादित जीवन विधि से समता साधक अवश्य ही अन्तर्मुखी बनता जायगा और अन्तरावलोकन का अभ्यास करेगा। इस दृष्टा भाव का सुपरिणाम यह होगा कि वह आध्यात्मिकता के आनन्द रंग में अपने आपको रंगता जायगा। आभ्यन्तर शुद्धि उसका प्रधान लक्ष्य बन जायगा और उसके साथ ही वह आभ्यन्तर शुद्धि का पुरुषार्थ सब में जगाना चाहेगा। आध्यात्मिकता के रंग से अपना अन्दर-बाहर का जीवन व्यवहार निर्मल बनाकर वह सभी को उस ओर प्रभावित करेगा। जब अपनी अर्जन प्रणाली, दिनचर्या तथा व्यवहार की पूरी परिपाटी नैतिकता के आधार पर ढल जायगी तो उस हृदय से उत्पन्न आध्यात्मिकता ओजस्वी होगी।
(१६) सुधार का अहिंसक प्रयोग आत्मिक एवं सामाजिक अनुशासन तथा संयम की मर्यादाओं को भंग करने वाले लोगों को एक समता साधक अहिंसक असहयोग के प्रयोग से सधारना चाहेगा। उसमें लेश मात्र भी उस प्रयोग के समय द्वेष की भावना नहीं होगी। उसका अहिंसक असहयोग एक अच्छे चिकित्सक के समान शुद्ध हिताकांक्षा की दृष्टि से होगा। समता की साधना से वह अहिंसा को ऐसे सशक्त शस्त्र के रूप में तैयार करेगा कि व्यापक क्षेत्र में भी द्वेष एवं प्रतिशोध से रहित होकर उसका सुधार की दृष्टि से सफल प्रयोग किया जा सके। घृणा पाप से हो, पापी से कभी नहीं लवलेश के अहिंसक सिद्धान्त के अनुरूप ही समता साधक सभी प्रकार के सुधार कार्यक्रमों का संचालन करेगा।
(१७) गुण कर्म से वर्गीकरण—एक समता-साधक प्रचलित वर्ण, वर्ग या सम्प्रदाय में अपना विश्वास नहीं रखेगा और व्यक्ति का अंकन उसके गुण और कर्म के अनुसार करेगा। इतना ही नहीं, वह समाज में भी गुण एवं कर्म के आधार पर वर्गीकरण करने तथा उसे प्रभावशाली बनाने का प्रयास
प्रकार के वर्गीकरण से विभिन्न वर्णों. वर्गों या सम्प्रदायों में व्याप्त कटता तथा विषमता समाप्त होती जायगी तथा उसके स्थान पर मानवीय समता प्रसारित होगी। गणाधारित वर्गीकरण से गुणों की अभिवृद्धि की ऐसी स्वस्थ होड़ चल निकलेगी कि मनुष्य अपनी प्रतिष्ठा वृद्धि के लिये गुण सम्पन्नता को मुख्य मान लेगा।
(१८) भावात्मक एकता–सम्पूर्ण मानव जाति की एकता के आदर्श को समक्ष रखते हुए एक समता साधक समाज या राष्ट्र की भावात्मक एकता को बल देगा तथा ऐसी एकता के लिये
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