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कारण रूप कार्य करती नहीं है और बबूल बोकर आम के फल लेना चाहती है। आत्म दर्शन की साधना से यह जानकारी और सीख मिलती है कि सुख और शाश्वत सुख पाने के कौनसे उपाय हैं तथा उसकी प्राप्ति का कौनसा मार्ग है ?
समता का आत्म दर्शन सबसे पहिले 'मैं' की अनुभूति कराना चाहता है और जड़ चेतन तत्त्व का स्वरूप बोध कराता है। इसके साथ ही आत्मा और शरीर के पृथकत्व का ज्ञान देकर आत्मा के चरम साध्य मोक्ष की साधना विधि बताता है। आत्म दर्शन से ही कर्म सिद्धान्त की जानकारी मिलती है कि कैसे और क्यों कर्म बंधते हैं, किस उपाय से कर्मबंध रुकता है तथा किस साधना से कर्मो का क्षय किया जा सकता है ? यह भी ज्ञात होता है कि पूर्वार्जित कर्मों का फल कैसे उदय में आता है और कैसे कर्म फल की शुभता का योग लेकर कर्म मुक्ति का सफल पुरुषार्थ किया जा सकता है? आत्म दर्शन में इस आत्म पुरुषार्थ की फलवत्ता पर भी प्रकाश डाला गया है कि कैसे सम्यक् ज्ञान, दर्शन और चारित्र की आराधना करते हुए व उत्तरोत्तर उच्चस्थ गुणस्थानों में आरोहण करते हुए आत्मा वीतरागी सयोगी केवली होकर अयोगी और सिद्ध हो जाती है ? यही समता की अवाप्ति का चरम होता है।
___ आत्म दर्शन से ही आत्म समत्व का ज्ञान होता है और चिन्तन, मनन एवं स्वानुभूति के आनन्दमय क्षणों का रसास्वादन । तपों की अग्नि में तपकर जब आत्मा शोधित स्वर्ण के समान निर्मल हो जाती है तब वह संसार की सब आत्माओं में एकत्व और समत्व की प्रतीति लेती है। आत्म दर्शन की दिशा में पूर्णता प्राप्त करने की दृष्टि से समता-साधक को नियमित रूप से कुछ भावात्मक अभ्यास करने चाहिये जो इस प्रकार के हो सकते हैं :
(अ) आत्म चिन्तन एवं आत्मालोचना स्वयं के बारे में सोचें और स्वयं की स्वयं आलोचना करें यह एक आध्यात्मिक प्रक्रिया है। स्वयं के बारे में सोचने का मतलब है आत्म स्वरूप के बारे में सोचना, वर्तमान आत्म-दशा पर सोचना, शद्धता पर लगे आवरणों के बारे में सोचना तथा उन आवरणों को हटाकर आत्म गुणों के प्रकटीकरण के बारे में सोचना। इस सोच का क्या अभिप्राय ? यही कि मनुष्य बाह्य वातावरण और भौतिक सुखों में ही इतना न रम जाय अथवा विषय-कषाय प्रमाद के दल दल में इतना न फंस जाय कि निजत्व को ही भूल जाय तथा अपने स्वरूप संशोधन के उपाय न करे। प्रतिदिन भीतर झांकते रहने से आत्म स्वरूप ओझल नहीं होता और उसके ओझल नहीं होने से उसकी विदशा को संशोधित और परिमार्जित करने का ध्यान सदा बना रहता है।
___इस ध्यान में असावधानी हो अथवा संशोधन व परिमार्जन के काम में भूलें होती रहे उसके लिये आत्मालोचना की प्रक्रिया है कि सही रास्ते से जहां भी या जितने भी दूर हटें उस पर विचार करें
असावधानी या भल के लिये प्रायश्चित लें। जो किया उसका पश्चाताप और उसे आगे से नहीं दोहराने का संकल्प—यह आत्मालोचना है।
___अतः प्रतिदिन प्रातः एवं सायं समता साधक को आत्म दर्शन करना चाहिये याने कि एक दो घड़ी आत्म चिन्तन करना चाहिये तथा विचार पूर्वक आत्मालोचना भी करनी चाहिये। इससे निरन्तर आत्म जागृति बनी रहेगी और प्रमाद न करते हुए समय के मूल्य की अनुभूति होती जायगी।
(ब) सत्साधना का नियम–समता साधना की अन्तरंग धारा तो हर समय प्रवाहित होती रहनी चाहिये किन्तु इस सतत प्रवाह को पुष्ट करने के उद्देश्य से सत्साधना के लिये नियमित समय
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