________________
वातावरण के तदनुकूल निर्माण पर यह निर्भर करता है कि स्वहित की आरंभिक संज्ञा रूढ़ एवं भ्रष्ट हो जाय अथवा जागृति और उन्नति की दिशा में मुड़ जाय । प्रत्येक जीवधारी में स्वरक्षा की संज्ञा हो—यह अस्वाभाविक नहीं है, किन्तु स्वाभाविक यह होगा कि सबकी स्वरक्षा की संज्ञा को सचेतन बनाई जाय कि कोई भी किसी की इस संज्ञा पर प्रहार न करे या न कर सके। सर्वहित के इस प्रयास के बीच आने वाली बाधाओं को समझना, उनके कारणों को दूर करना तथा उनको जीत कर स्वहित को सर्वहित के समत्व भाव से रंग देना—यही समता का सजग एवं सफल व्यवहार्य पक्ष हो सकता है।
विषमता से समता में परिवर्तन अपनी अपनी साधना शक्ति के अनुसार एक छोटी या लम्बी प्रक्रिया हो सकती है किन्तु इस परिवर्तन का रहस्य अवश्य ही आचरण की गरिमा में समाया हुआ रहता है। कोई भी परिवर्तन बिना क्रियाशीलता के नहीं आ सकता है। बिच्छू काटे की दवा कोई जानता है लेकिन बिच्छू के काटने पर अगर वह उस दवा का प्रयोग करने की बजाय उस जानकारी पर ही घमंड करता रहे या उसे ही दोहराता रहे तो क्या बिच्छू का जहर उतर जायगा ? यही विषमता का हाल होता है। विषमता मिटाने का ज्ञान कर लिया, किन्तु उस ज्ञान के अनुसार अपने आचरण को नहीं ढाला तो क्या विषमता मिट जायगी? विषमता मिटाने के लिये उस ज्ञान के निषेध और विधि के दोनों रूप आचरण में उतरने चाहिये। ज्यों-ज्यों निषेध रूप से विकारों की विषमता घटती जायगी त्यों-त्यों विधि रूप से समता की अमिय-वर्षा गहराती जायगी।
समतामय आचरण के अनेकानेक पहलू और रूप हो सकते हैं परन्तु सारे तत्त्वों और समस्त परिस्थितियों को समन्वित करके उसके सारे रूप में निम्न इक्कीस आचरण सूत्रों की रचना की गई है जिन पर यदि मनुष्य अमल करके अपने भीतर और बाहर को सुधारे व बदले तो समता की गहन साधना भी आरंभ की जा सकती है। तथा बाह्य विस्तृत वातावरण में भी समताभरा तालमेल बिठाया जा सकता है
(१) हिंसा का परित्याग–हिंसा के आंशिकत्यागी श्रावक को अनावश्यक हिंसा का परित्याग करना तथा आवश्यक हिंसा की अवस्था में भी भावना तो प्राणी रक्षा की रखनी चाहिये, लेकिन विवशता से होने वाली हिंसा में लाचारी अनुभव की जानी चाहिये, न कि प्रसन्नता। साध्वाचार में तो हिंसा का सर्वथा परित्याग कर दिया जाता है। समता साधना के प्रारंभ में स्थूल रूप हिंसा का तो परित्याग कर ही देना चाहिये कि वह अपने हित के लिये परहित पर किसी प्रकार का आघात नहीं पहुंचाएगा। सन्तुलन के इस बिन्दु से जब साधना आरंभ की जायगी तो स्वार्थों का संघर्ष अवश्य कम होता जायगा। स्वहित की रक्षा में यदि उसे आवश्यक हिंसा करनी भी पड़ी तो वह उस का आचरण अति खेदपूर्वक ही करेगा जिसका विकास इस रूप में होगा कि आगे जाकर वह परहित के लिये स्वहित का त्याग करने की शुभ भावना का निर्माण कर लेगा । यही विकास जब और आगे बढ़ेगा, तब वह पूर्ण अहिंसक व्रत अंगीकार कर सकेगा।
(२) मिथ्याचार-मुक्ति कहावत है कि एक झूठ बोल कर उसे टिकाये रखने के लिये सौ झूठ बोलने पड़ते हैं। इसी झूठ पर यह मिथ्याचार पनपता है जो केवल वचन तक ही सीमित नहीं रहता है। कथनी को मिथ्या बनाकर करनी को वह मिथ्याचारी बनाता रहता है। जितना मिथ्याचार उतनी ही अधिक विषमता। इस कारण विषमता से मुक्ति पाने के लिये मिथ्याचार से मुक्ति अनिवार्य
४५४