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निर्धारण का नियम भी आवश्यक है कि प्रति दिन निर्धारित समय पर सत्साधना में बैठा ही जाय और उस समय के कर्त्तव्यों को निष्ठा पूर्वक पूरे किये ही जाय ।
सत्साधना के क्षेत्र में किन्हीं विशिष्ट प्रवृत्तियों को भी हाथ में ले सकते हैं जो स्व-पर कल्याण से सम्बन्धित हो तथा यथाशक्ति यथाविकास सम्पन्न की जा सकती हो किन्तु अभ्यास अबाध रूप से नियम पूर्वक चलना ही चाहिये ताकि सभी क्षेत्रों में समता के लिये चाह निरन्तर प्रगाढ़ बनती जाय। इस सत्साधना से आभ्यन्तर एवं बाह्य समता स्थापना हेतु नये शान्तिपूर्ण मार्ग खोजने की प्रेरणा मिलेगी तथा ऐसी पद्धतियों के विकास का अवसर भी मिलेगा जिनके माध्यम से व्यक्ति के जीवन के साथ समाज विस्तृत क्षेत्र में भी भावात्मक एवं कार्यात्मक एकरूपता पैदा की जा सके। स्वतंत्र चिन्तन पर आधारित ऐसी एकरूपता से ही समतामय वातावरण को सुदृढ़ एवं सुस्थिर बनाया जा सकेगा ।
(स) स्वाध्याय - चिन्तन की प्रक्रिया एवं निर्णायक शक्ति तब तक अपूर्ण ही रहेगी जब तक आगम-शास्त्र एवं सत्साहित्य का अध्ययन न हो तथा उनकी नित्य प्रति स्वाध्याय नहीं की जाती हो । यों स्वाध्याय को स्व का अध्याय भी कहते हैं जो आत्म स्वरूप दर्शन की प्रक्रिया जाती है। स्वाध्याय की परिपाटी से उन महापुरुषों के उपदेशों को हृदयंगम कर सकते हैं जिन्होंने आत्मदर्शन करके परमात्म- अवस्था को प्राप्त कर ली। इसी परिपाटी से हम उनके उपदेशों पर स्वयं चिन्तन करके उनकी उपादेयता का मूल्यांकन कर सकते हैं । चिन्तन और मनन का अभ्यास स्वाध्याय से ही परिपक्क न बनता है । प्रत्येक आत्मा ज्ञानधारी होती है, तब यह सर्वथा संभव है कि चिन्तन की धारा में कोई आत्मा विपुल गहराई में उतर कर विचारों के नये नये मोती ढूंढ लावे ।
अतः समता के साधक को प्रति दिन नियमित रूप से स्वाध्याय करनी चाहिये ताकि चिन्तन-मनन की वृत्ति सजग बने। पढ़ें और सोचें – फिर अपना निर्णय लें - यह क्रम ही मनुष्य को सदा विवेकशील एवं प्रगतिशील बनाये रखता है। स्वाध्याय, चिन्तन और स्वानुभूति – ये एक ही आत्म पुरुषार्थ के तीन चरण हैं ।
(द) लोकोपकार की भावना - आत्म दर्शन का सार मनुष्य के मन में इस रूप से जागना चाहिये कि क्रमशः यह प्रगति साधी जाय। पहली भावना – मैं किसी को दुःख न दूं। दूसरी भावना - मैं सबको सुख दूं तथा तीसरी भावना - मैं सबको सुख देने में स्वयं को दुःख सहने पड़े तो उन्हें सुखपूर्वक सहूं। ये हैं लोकोपकार की भावना के विकास के तीन स्तर, जो मनुष्य को अधिकाधिक त्याग के लिये अनुप्राणित बनाते हैं। अहिंसक जीवन शैली का सीधा सुप्रभाव लोकोपकार पर पड़ता है क्योंकि निषेध रूप अहिंसा किसी भी प्रकार के हिंसाचरण को रोकती है तो अहिंसा का विधि रूप अनुकम्पा और रक्षा का सर्वोच्च भावात्मक सम्बल होता है ।
सबको अपने कठिन त्याग के आधार पर सुख देने की भावना इस दिशा की क्रियात्मक भावना होगी कि लोकोपकार के क्षेत्र को विस्तृत बनाया जाय – उसे सर्वमुखी समता का समतल धरातल प्रदान किया जाय। इस वृत्ति में मनुष्य अपनी आत्मा की सेवा शक्ति के अत्युच्च विकास के साथ समता को सकल विश्व की परिधि तक फैला देने में सक्षम बन जायगा । स्वार्थों को समेटो और आत्मीयता को सर्वत्र फैलाओ – यही एक समता साधक का प्रमुख आचरण – सूत्र बन जाना चाहिये ।
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