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से ऐसे बहुमुखी दायित्वों पर ईमानदारी से विचार किया जाय तथा इन्हीं सब 'यथा' के साथ उन दायित्वों का विचारपूर्ण निर्वहन भी किया जाय। ऐसी अवस्था में व्यक्ति अपने स्वयं के प्रति एवं परिवार से लेकर समूचे प्राणी समाज के प्रति अपने सभी दायित्वों एवं कर्तव्यों का समुचित रीति से निर्वहन कर सकेगा तथा सर्वत्र समता के स्थायी भाव को संचरित भी बना सकेगा। कर्त्तव्यहीनता यों विषमता का लक्षण बनती है या विषमता की वाहिका, अतः विचारपूर्ण निर्वहन का सदाग्रह सदा प्रदीप्त रहना चाहिये।
(ऊ) सबमें एक : एक में सब–समता के जीवन दर्शन का यह प्रमुख अंग होगा कि सबमें एक और एक में सबकी धारणा बलवती बने तथा अपने व्यवहार में सब एक के लिये और एक सबके लिये सदैव सन्नद्ध रहे। इस सूत्र पर आचरण इतना प्रभावी होगा कि विषमता के विष की आखरी बूंदें भी सूख कर नष्ट हो जायगी और सारा समाज पारस्परिक हित-सहयोग तथा एकता के सूत्र में आबद्ध होकर आध्यात्मिक एवं आत्मोन्मुखी बन जायगा। सहयोग एवं सहानुभूति के सुखद वातावरण से आश्वस्त होकर सभी के चरण समता प्राप्ति की दिशा में तेजी से आगे बढ़ सकेंगे। विचार, वचन और व्यवहार में सर्वत्र समता का समावेश दिखाई देगा।
_ (ए) व्यापक आत्मीय निष्ठा—जैसे अपने परिवार में रहता हुआ एक व्यक्ति सामान्य रूप से सारे भेद भाव भूल जाता है और अपने सभी कर्तव्यों के प्रति सजग रहते हुए सबकी यथायोग्य सेवा भी करता है, उससे भी उन्नत रूप में एक समता साधक समूचे विश्व को अपना परिवार मानकर अपने नैतिक एवं आध्यात्मिक कर्तव्यों का एकनिष्ठा से पालन करता है। परिवार में रक्त सम्बन्ध की प्रबलता होती है, परन्तु वसुधा के विशाल परिवार में भावना की सघनता रक्त सम्बन्ध को बहुत पीछे छोड़ देती है, क्योंकि उस भावना का आधार व्यापक आत्मीय निष्ठा पर टिका हुआ होता है। मानव जीवन में विकास के लिये कोई भी ऊंचाई असाध्य नहीं होती। जो सोचता है कि वैसी ऊंचाई नहीं मिलेगी तो यह उसकी दुर्बलता ही होती है। जो जीवन दर्शन की क्रियाशील प्रेरणा से ओतप्रोत होकर समता मार्ग पर आगे बढ़ जाता है, वह सबसे ऊंची ऊंचाई को भी प्राप्त करके रहता है।
(३) आत्म दर्शन-आत्मदर्शन का अर्थ होता है मूल आत्म स्वरूप का दृष्टा बनना, क्योंकि दृष्टा बनकर ही ज्ञाता और विज्ञाता बना जा सकता है तथा यह जाना जा सकता है कि यह आत्मा ही स्वयं कर्ता एवं अपने ही किये हुए कर्मों का भोक्ता है। न इसको कोई अन्य चलाने वाला है या सुख दुःख देने वाला है। यही इसकी भाग्य विधाता है—स्वयं भाग्य बनाती है और उसका फल भोगती है।
यह आत्म दर्शन अपनी स्वतंत्र सत्ता और शक्ति का प्रेरक बनेगा। संसार में कोई ऐसी शक्ति नहीं जो इस आत्मा को सुख या दुःख देती हो। जैसा यह आत्मा कर्म करती है अच्छा या बुरा अथवा शुभ या अशुभ, वैसा ही उसका वह फल भोगती है जिसका स्पष्ट अभिप्राय यह होगा कि यदि उसे सुख चाहिये तो शुभ कर्म करने चाहिये। दूसरों को सुख देने वाले कर्म शुभ या पुण्य रूप होते हैं और दूसरों को दुःख देने वाले कर्म अशुभ तथा पाप रूप होते हैं। आत्मा को याने कि मनुष्य को इससे सार यह लेना है कि सुख दोगे तो सुख मिलेगा और दुःख दोगे तो दुःख मिलेगा। यों सुख पाने की प्रत्येक आत्मा को अभिलाषा रहती है किन्तु अज्ञानवश या कि जड़ग्रस्तता से वह सुख के
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