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(आ) पंच व्रत आचरण – जब दुराचरण का त्याग करके सदाचरण की ओर उन्मुख हुआ जायगा तब उस सदाचरण का स्वरूप भी स्पष्ट होना चाहिये । इस हेतु पंच व्रतों का अवलम्बन लिया जाना चाहिये जिनका आंशिक पालन श्रावक करता है और सर्वथा पालन साधु धर्म की महत्ता रूप होता है । ये व्रत हैं— अहिंसा, सत्य, अचौर्य, ब्रह्मचर्य और अपरिग्रह ।
ये पांच व्रत जीवन विकास की कड़ी के रूप में होते हैं। हिंसा विषमता का महाद्वार होती है, इस कारण जब विषमता त्यागनी है तो हिंसा को पहले त्यागना होगा । अहिंसापूर्ण आचरण को अपनाये बिना समता की दिशा में गतिशील होना तो दूर - उस तरफ उन्मुख भी नहीं हो सकेंगे । अहिंसा का पोषण होगा अचौर्य्य और अपरिग्रह व्रतों से जो परिग्रह की मूर्छा को घटाकर जीवन में संयम—चेतना का विकास करेंगे तथा उसमें अपूर्व सहायता देगा ब्रह्मचर्य व्रत । इस प्रकार इन व्रतों की साधना साधक को सत्य की ओर ही अग्रसर करेगी। सत्य का साक्षात्कार करना ही पूर्णभावेन समता का वरण करना है तथा समदर्शी बन जाना है। मिथ्या का त्याग और सत्य का अनुशीलन ज्ञान एवं क्रिया की युति को स्पष्ट, पुष्ट तथा आत्मनिष्ठ बना देगा ।
(इ) उच्च प्रामाणिकता - वास्तव में देखा जाय तो प्रामाणिकता एवं विश्वसनीयता प्रत्येक नागरिक का सामान्य गुण होना चाहिये किन्तु इस अर्थ-प्रधान युग ने उसे दंभी और पाखंडी बना दिया है। समाज का समूचा वातावरण ऐसा दो रंगा बन गया है कि जो है कुछ और लेकिन अपने को बताता है कुछ और। यदि ऐसा पाखंड है तो वह राजनीति, अर्थनीति या समाज नीति में सफलताओं पर सफलताएं पाता हुआ ऊपर से ऊपर उठ जायगा । और आश्चर्य की बात यह होगी कि उसे इस समाज में प्रामाणिकता का जामा भी ओढ़ने को मिल जायगा किन्तु समता की साधना में पाखंड को कहीं भी स्थान नहीं रहेगा । प्रामाणिकता का मूल मंत्र यह होगा कि जो जितने अच्छे क्षेत्र में काम करता है और जितने ऊंचे पद पर जाता है, उसका प्रामाणिकता के प्रति अधिक से अधिक दायित्व बनेगा अर्थात् क्षेत्र की गरिमा तथा पद की मर्यादा के अनुसार प्रामाणिकता लाने पर बल दिया जायगा । प्रामाणिकता एवं विश्वसनीयता की धारा उन लोगों से बहेगी जो समता का स्रोत बन जायगी । उच्च प्रामाणिकता आचरण में से विषमता के मिट जाने पर ही प्रतिष्ठित हो सकेगी और मन, वाणी एवं कर्म की एकरूपता के साथ समता की प्रबल पृष्ठभूमि बन जायगी ।
(ई) संयम का अनुपालन - प्रामाणिकता एवं विश्वसनीयता के प्रतिष्ठार्जन के पश्चात् आचरण के चरण अधिक शुद्धि की दिशा में अग्रगामी बनेंगे। तब जीवन में एक स्वस्थ एवं व्यवस्थित परिपाटी का उदय होगा जिसका आधार होगा निष्कपट भाव से मर्यादा, नियम एवं संयम का अनुपालन । मर्यादाएं वे जो व्यक्ति एवं व्यक्ति तप समाज के पारस्परिक सम्बन्धों के सुचारू रूप से निर्वहन के कारण हित परम्पराओं के रूप में ढल गई हों। नियम वे जो जीवन और संगठन को स्वच्छ अनुशासन का रूप देते हों तथा संयम का महत्त्व और गुणगौरव तो सभी को ज्ञात है। ऐसी मर्यादाओं, नियमों तथा संयम के अनुपालन में भावों की निष्कपटता पहले जरूरी है। ऐसी दशा में विश्वासघात एवं आत्मघात की दो स्थितियां स्वतः ही टल जायगी । समता के साधन का जीवन इस रूप में पूर्ण नियमित तथा संयमित बन जाना चाहिये ताकि विषमता के प्रवेश के सभी मार्ग ही बन्द हो जावें और समता की समरसता सभी क्षेत्रों में छा जावे ।
( उ ) विचारपूर्ण निर्वहन - समाज में रहते हुए व्यक्ति के कई पक्ष होते हैं और इस कारण उसके दायित्व भी बहुमुखी हो जाते हैं। अतः यथास्थान, यथावसर, यथाशक्ति एवं यथायोग्य रीति
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