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समता की आभ्यन्तर दृष्टि को उभारने में आध्यात्मिकता का ही प्रमुख योगदान हो सकता है। मानस परिवर्तन बलात् संभव नहीं होता और बलात् परिवर्तन ला भी दिया जाय तो उसका स्थायित्व सदा संदिग्ध रहेगा। इस कारण शुभ योगमय परिवर्तन की इच्छा ही आन्तरिकता में जगानी होगी। यह इच्छा जगेगी सम्पूर्ण आध्यात्मिक स्वरूप को समझ कर तथा आत्मा के सर्वोच्च विकास को चरम साध्य मानकर। यह दृष्टि आध्यात्मिकता ही प्रदान करती है। वीतराग देवों ने इच्छा निरोध रूप संयम, जड़ पदार्थों से ममत्व त्याग तथा आठों कर्मों के क्षय रूप तप का मार्ग प्रशस्त कर रखा है और इसी मार्ग की प्रेरणा से व्यक्ति के हृदय में परिवर्तन लाकर उसके मन, वचन, काया के अशुभ योगों को शुभता में परिणत कर सकते हैं जिनके आधार पर भीतर और बाहर समता की संरचना की जाय । इस रूप में आत्मीय समता की अनुभूति ही समता की भावना को स्थिरता प्रदान करेगी तो उसे कृतित्व के सांचे में भी ढालेगी। बाह्य वातावरण में जब समता का विस्तार होगा तो उससे बाह्य वातावरण भी सुधरेगा और जन-जन की आन्तरिकता में भी समता का उदय होने लगेगा। अतः समता की दोनों प्रकार की दृष्टियों में शुभ परिवर्तन तथा विकास के प्रयल करने के साथ साथ दोनों के पारस्परिक सामंजस्य को भी क्रियाशील बनाते जाना चाहिये ताकि व्यक्ति की आन्तरिकता में और बाह्य वातावरण में याने कि संसार की आन्तरिकता में भी यथोचित परिवर्तन पूर्ण किये जा सकें।
समता का दार्शनिक स्वरूप समता के दार्शनिक स्वरूप को समता के आचरण का आधार स्तंभ माना जाना चाहिये। दर्शन होता है वह वैचारिक मूल—जिस पर संरचना का सृजन किया जाता है। वैचारिकता यदि यथार्थ, बोधगम्य एवं सानुभव हो तो उसके अनुसार किया जाने वाला कृतित्व सदा ही सार्थक स्वरूप ग्रहण करेगा।
यहां हम समता दर्शन को चार प्रकार के वर्गीकरण से इस रूप में समझने का यत्न करेंगे कि उसकी दार्शनिकता के साथ उसकी व्यावहारिकता भी सुप्रकट हो सके। यदि कोई भी दर्शन व्यवहार्य न हो तो उसकी उपादेयता कम हो जाती है। समता के दार्शनिक स्वरूप का विवेचन करके यही स्पष्ट किया जायगा कि उसे व्यवहार रूप में ढालने पर व्यापक सामाजिक परिवर्तन का सूत्रपात किया जा सकता है, क्योंकि समता दर्शन और उसके व्यवहार से प्रभावित साधकों की बहुत बड़ी संख्या और वह भी स्थान-स्थान पर पहले ही तैयार की जा सकती है। इस दृष्टि से समता का दार्शनिक स्वरूप एक नई ही उत्क्रान्ति का कारणभूत हो सकता है।
___ किसी भी अच्छे विचार या व्यवहार को गतिशील बनाने के लिये उसके वाहकों की आवश्यकता होती है। विचार दिये की बाती की तरह यदि एक से अनगिन बातियों को नहीं जला पाता तो समझिये कि वह अपने समुचित विकास को प्राप्त नहीं कर सकेगा, किन्तु विचार के ऐसे विकास में उस हाथ की सदा जरूरत रहेगी जो दिए को हाथ में उठा कर उसकी जलती हुई लौ को दूसरे दियों की बातियों से छुआ छुआ कर प्रदीप्त बनाता रहे। इसी तरह व्यवहार को भी उसके चालकों की जरूरत होती है इसलिये समता के विचार और व्यवहार को कार्यक्षम सफलता दिलाने के लिये वाहकों और चालकों की सेना याने निःस्वार्थ साधकों की टोलियां एकदम जरूरी हैं जिनके प्राणवान् सहयोग के बिना समता की ज्योति के प्रकाश को भी अंधेरे दिलों में भरा नहीं जा सकेगा।
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