________________
बनाती है, इस कारण इसकी रोक व निवारण के उपाय भी उसी स्तर से किये जाने चाहिये जो किसी संक्रामक रोग के लिये किये जाते हैं। यह कार्य प्रबुद्ध जनों, धर्मोपदेशकों आदि का होता है जो जड़ग्रस्तता की हानियों को भली प्रकार समझा कर सामान्य रूप से ऐसी विषमता के विरुद्ध जनमत बनाने का प्रयास करते हैं। इसी से त्याग का रूझान भी बढ़ता है और आत्मोन्मुखी वृत्ति विकसित होती है।
समता की दृष्टियां विषमता एवं हिंसा से आवृत्त वर्तमान जटिल वातावरण में आशा की किरणें दिखाई देती हैं जो दो प्रकार से मन मानस को हताश नहीं होने देती है। एक तो यह बुनियादी तथ्य है कि मनुष्य का स्वभाव समतामय है और विभावगत विषमता के कितने ही गहरे कीचड़ में वह चाहे फंस जाय, उसका स्वभाव समय समय पर समता की बलवती प्रेरणा के झटके लगाता ही रहता है। अव्यक्त तरीके से तो यह स्वभाव मनुष्य को उसकी प्रत्येक विकृत वृत्ति या प्रवृत्ति के कार्यरत होने से आरंभ में ही चेतावनी देता रहता है, जिसे अनसुनी करते करते भी कभी यह चेतावनी असर कर ही देती है।
इसका पुष्ट कारण यह है कि कोई कितना ही पतन के गढ्ढे में चला जाय, मनुष्य का मन अपनी चंचलता के कारण क्रिया और प्रतिक्रिया के चक्र में घूमना नहीं छोड़ता। जड़तापूर्ण विषमता के प्रति जागी हुई मन की रागात्मक क्रिया भी जब एक सीमा तक कार्यरत हो जाती है तो उसी से उसकी प्रतिक्रिया भी फूटती है। उस प्रतिक्रिया के क्षणों में वह मन अगर सम्यक् बोध पा जाय तो प्रभावशाली परिवर्तन भी संभव हो जाता है।
दूसरी प्रकार की आशा की किरण यह होती है कि सामूहिक और सामाजिक रूप से विषम परिस्थितियां उत्पन्न हो जाने के उपरान्त भी कई प्रबुद्ध व्यक्ति ऐसे होते हैं जो उस पतनावस्था के विरुद्ध विद्रोह और संघर्ष करते हैं तथा अपनी सदाशयता से नीति एवं समतामय परिवर्तन लाने का प्रयास करते हैं। प्रयलों की यह निरन्तरता एक ओर विषमताओं को अति सघन नहीं बनने देती तो दूसरी ओर पतनोन्मुख व्यक्तियों के हृदयस्थ भावों में शुभ परिवर्तन का आन्दोलन जगाती रहती है। इस प्रकार व्यक्ति अपने ही मन की बदलती विचारणाओं के कारण और समूह या समाज प्रबुद्ध व्यक्तियों द्वारा बदली जाने वाली धारणाओं के कारण समता के साध्य से पूर्णतः विस्मृत कभी नहीं होता है। इस कारण हताशा कभी भी उत्साही मनों को शिथिल न बनावे—यह शिक्षा लेनी आवश्यक है। विषमता का जितना गहरा घटाटोप अंधकार है, उसमें समता की एक तीली भी कोई जला सके तो वह भी यत्किंचित् प्रकाश की रेखा अवश्य अंकित करेगी। एक व्यक्ति के कई प्रयास या निरन्तर प्रयास जब कई व्यक्तियों के निरन्तर प्रयासों में परिपुष्ट बनते हैं और जब आर्थिक एवं राजनीतिक प्रयास भी समाज में सामूहिक परिवर्तन की दृष्टि से किये जाते हैं तो कोई कारण नहीं कि विषमताओं का चलन बहुत हद तक न घटे और समता को प्रोत्साहन देने वाला सामान्य धरातल भी न बने । ऐसे शुभ कार्य में त्याग और बलिदान की अपेक्षा तो रहेगी ही। रेगिस्तान की तपती हुई रेत में पड़ने वाली और तुरन्त विलुप्त हो जाने वाली वर्षा की पहली बूंदों की तरह विषमताओं को मिटाने के भगीरथ कार्य में भी समर्पित भावना अनिवार्य मानी जानी चाहिये। आज की स्थिति भी इस दृष्टि से असाध्य किसी हालत में नहीं है।
४३६