Book Title: Aatm Samikshan
Author(s): Nanesh Acharya
Publisher: Akhil Bharatvarshiya Sadhumargi Jain Sangh

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Page 440
________________ है जिस अपेक्षा से संसारी आत्मा रूपी भी कहलाती है । किन्तु नाम कर्म के अभाव में सिद्धात्माओं से कोई भी शरीर नहीं रहता, इसलिये उनका स्वरूप अरूपी ही रहता है। (७) अगुरुलघुत्व - अरूपी होने से सिद्धात्मा न भारी होती है न हल्की । वह निरंजन होती है अतः अगुरुलघु होती है। (८) अनन्त शक्ति — मूल रूप में आत्मा में जिस अनन्त शक्ति या बल का सद्भाव रहता है, वह सिद्धावस्था में सम्पूर्णतः प्रकट हो जाता है । अन्तराय कर्म के कारण आवृत्त बनी समस्त शक्तियां उस कर्म के नष्ट हो जाने पर पूरी स्पष्टता से अनावृत्त हो जाती हैं। सिद्धात्मा में अनन्त शक्ति व्यक्त बन जाती है। मैं सिद्ध होता हूं आठों कर्मों का समूल विनाश कर देने से तो उस अपेक्षा से मेरे पद में इकत्तीस गुणों का उल्लेख भी किया गया है, क्योंकि आठों कर्मों की विदृष्टि से कुल प्रकृतियाँ ज्ञानावरणीय कर्म की पांच, दर्शनावरणीय कर्म की नौ, वेदनीय कर्म की दो, मोहनीय की दो, अन्तराय कर्म की चार, नाम कर्म की दो, गोत्र कर्म की दो तथा अन्तराय कर्म की पांच मिलाकर इकत्तीस प्रकृतियां होती हैं। इन्हीं इकत्तीस प्रकृतियों के क्षय हो जाने से सिद्धात्माओं में ये इकत्तीस गुण प्रकट होते हैं— (१) क्षीण आभिनिबोधिक ज्ञानावरण (२) क्षीण श्रुत ज्ञानावरण (३) क्षीण अवधि ज्ञानावरण (४) क्षीण मन:पर्यय ज्ञानावरण (५) क्षीण केवल ज्ञानावरण (६) क्षीण चक्षुदर्शनावरण (७) क्षीण अचक्षुदर्शनावरण (८) क्षीण अवधिदर्शनावरण (६) क्षीण केवल दर्शनावरण (१०) क्षीणनिद्रा (११) क्षीण निद्रा-निद्रा (१२) क्षीण प्रचला (१३) क्षीण प्रचलाप्रचला (१४) क्षीण सत्यानगृद्धि (१५) क्षीण सातावेदनीय (१६) क्षीण असातावेदनीय (१७) क्षीण दर्शन - मोहनीय (१८) क्षीण चारित्र मोहनीय (१६) क्षीण नैरयिकायु (२०) क्षीण तिर्यंचायु (२१) क्षीण मनुष्यायु (२२) क्षीण देवायु (२३) क्षीण उच्च गौत्र (२४) क्षीण नीच गौत्र (२५) क्षीण शुभ नाम (२६) क्षीण अशुभ नाम (२७) क्षीण दानान्तराय ( २८ ) क्षीण लाभान्तराय (२६) क्षीण भोगान्तराय (३०) क्षीण उपभोगान्तराय तथा (३१) क्षीण वीर्यान्तराय । सिद्ध पद के गुण इस प्रकार भी बतलाये गये हैं कि सिद्धात्मा पांच संस्थान, पांच वर्ण, दो गंध, पांच रस, आठ स्पर्श, तीन वेद तथा काय, संग एवं रुह ( पुनरुत्पत्ति) को क्षय कर देती है, जिनके क्षय से प्रकट होने वाले गुण भी इकतीस होते हैं। वैसे बीज के जल जाने पर अंकुर पैदा नहीं होता, उसी प्रकार कर्म रूपी बीज के जल जाने से सिद्ध आत्माओं के संसार रूपी अंकुर पैदा नहीं होता । जब मैं अपने को सिद्ध कहता हूं तो मैं अपनी ही आत्मा के मूल स्वरूप का वर्णन करता हूं। मेरी आत्मा भी सिद्धात्मा जैसी ही है, क्यों कि जो आत्मा होती है वही सिद्ध होती है। आत्मा और सिद्धात्मा के बीच मात्र आठों कर्मों के आवरण होते हैं जो जब सम्पूर्णतः नष्ट कर दिये जाते हैं तब आत्मा अपने मूल स्वरूप को तथा अपने गुणों को प्राप्त करके स्व-स्वभाव में अथवा स्वधर्म में अवस्थित हो जाती है । स्वधर्म स्थित आत्मा ही सिद्धात्मा होती है अतः सिद्धात्मा के स्वरूप के अनुसार ही मेरी आत्मा का मूल स्वरूप भी होता है । इसीलिये मैं कहता और मानता हूं कि अपने मूलस्वरूप में मैं न दीर्घ हूं, न ह्रस्व, न वृत्त हूं, न त्रिकोण या चतुष्कोण और मैं मंडलाकार भी नहीं हूं। मैं न काला हूं, न हरा हूं, न लाल, न पीला और न सफेद हूं। मैं न सुगंध रूप हूं, न दुर्गंध रूप। मैं न तीखा, न कड़वा, न कषैला, न खट्टा व न मीठा हूं तो मैं न कठोर, न कोमल, न भारी, न हल्का, न ठंडा, न गर्म, न चिकना और न रूखा हूं। मैं न स्त्री हूं, न पुरुष हूं तथा न ही नपुंसक ४१५

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