Book Title: Aatm Samikshan
Author(s): Nanesh Acharya
Publisher: Akhil Bharatvarshiya Sadhumargi Jain Sangh

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Page 454
________________ फलस्वरूप मनुष्य गलत दिशा का महत्त्वाकांक्षी बनने लगा। राज्य प्रसार और व्यवसाय प्रसार की होड़ लग गई कि कौन कितना अधिक उपार्जन करता है और कौन अपना अधिक से अधिक वर्चस्व और प्रभाव बनाता है। मनुष्य तब पदार्थी से स्वार्थी बनने लगा और स्वार्थ बढ़ता गया तो उसमें सामूहिक हित की भावना क्षीण होने लगी। उसकी इसी वृत्ति ने बड़े-बड़े राज्यों की और साम्राज्यों की रचना की जिसके साथ ही दमन और शोषण का दौर दौरा भी शुरू हुआ। सेवा करने वाली जाति का काम सेवा करना है— परिश्रम करना है। यह जरूरी नहीं रहा कि परिश्रम करने वालों को उसके परिश्रम का उचित मूल्य मिले ही। वे परिश्रम पूरा करें और प्रभावशाली वर्ग उसे उसके जीवन निर्वाह के लिये जितना दे दें, उससे वह संतोष कर ले। इस व्यवस्था के चलने से राजनीति और अर्थ के नये ही ढांचे खड़े हो गये। राज तंत्र की स्थापना करके राजा सेवक रूप से ईश्वर रूप बन गया - ईश्वर का इस संसार का प्रतिनिधि । उसकी भिक्षा पर पलने वाले ब्राह्मण वर्ग ने राजा की शान में चार चांद लगाने शुरू कर दिये। उधर व्यापारी वर्ग ने भी राजा की सेवा करते हुए अपना व्यापार ही नहीं बढ़ाया बल्कि अपने लाभांशों का भी विस्तार कर दिया। इस प्रकार राजनीति और अर्थ ने अपना गठजोड़ा जोड़ कर समाज में एक ऐसे शक्तिशाली वर्ग को जन्म दे दिया जो समूचे समाज का शासक और भाग्य नियन्ता बन गया । यह शक्तिशाली वर्ग जरूर बना किन्तु इसी वर्ग में व्यक्तिवादी होड़ भी जारी रही । वे व्यक्तिगत प्रभाव के लिए परस्पर संघर्षशील बन गये । इस कारण साम्राज्यवाद के विकास के साथ भीषण युद्धों का और युद्धास्त्रों का विकास भी होने लगा। धीरे-धीरे सभी देशों में यह विकृति पनपने लगी तथा क्षेत्रवाद और समूहवाद से ऊपर राष्ट्रवाद भी एक आक्रामक शक्ति के रूप में उभरने लगा। यहीं से भयंकर युद्धों का प्रारंभ हुआ । प्रथम विश्व युद्ध (सन् १६१४) तथा द्वितीय विश्वयुद्ध (सन् १६३६) तो आज भी कई लोगों की स्मृति में होंगे। इन युद्धों के बाद यह परिस्थिति स्पष्ट होती जा रही है कि अर्थ का वर्चस्व प्रमुख है और वही राजनीति को चलाता है । इस सारे विषम विकास के बीच में भी मनुष्य के मन बसी हुई समता कभी टूटी नहीं । वह अपनी समता की रक्षा के लिये निरन्तर सावधान भी रहा । एक ओर तो अर्थ तथा राजनीति की शक्तियों ने अपना अलग वर्ग खड़ा कर दिया और समूचे समाज पर शासक के रूप में वे छा गई तो दूसरी ओर सामान्य जन अपने दमन और शोषण के विरूद्ध लड़ते भी रहे। समता की प्रबल आकांक्षा ने ही लोकतंत्रीय पद्धति को जन्म दिया है कि जिसमें सभी नागरिक समानता के आधार पर जी सकें। यह दूसरी बात है कि वह लोकतंत्रीय पद्धति सत्ता और सम्पत्ति के प्रपंची स्वामियों के सामने अपने शुद्ध रूप में विकसित नहीं हो सकी है, लेकिन संघर्ष जारी है। इस दौरान भौतिक विज्ञान का भी अकल्पनीय विकास हुआ। नये-नये अनुसंधानों तथा आविष्कारों ने अपार शक्ति के स्त्रोत खोल दिये, जिन्हें सत्ता और सम्पत्ति के स्वामियों ने अपने अधिकार में ले लिये। इसका दुष्परिणाम यह हुआ कि विज्ञान की शक्ति उनकी शासन शक्ति बन गई। जिस वैज्ञानिक विकास को सामान्य जन का सहायक बनना चाहिये था, वह संभव नहीं. पाया। उसी का कुफल है कि आज का यह विश्व भयानक अणु-शस्त्रों के अम्बार पर बैठा है जिसमें जब भी किसी घोर सत्ता लिप्सु ने अंगार रख दिया तो सारा विश्व धू धू करके जल उठेगा। उस आग में सिर्फ सत्ता और सम्पत्ति की अन्यायी शक्तियां ही नहीं जलेगी किन्तु वह सब कुछ अमूल्य ४२

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