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दृष्टिहीनता का दुःख लम्बा भी हो सकता है। आंख में यह कीला चुभोते हुए तो आदमी को उसके कुफल का भान रहता है लेकिन अपने सुख के लिये दूसरों को दुःख देते हुए-तड़पाते और कलपाते हुए आदमी को सभी देखते हैं अपनी ताकत के गरूर में जरा भी भान नहीं रहता। ऐसा कुकृत्य अपना कुफल तो देगा ही जल्दी या देर से। ऐसे कुकृत्य ही कर्म बंध रूप होते हैं और उनका कुफल मिलना कर्मों का उदय में आना कहा जाता है। कर्म बुरे भी होते हैं तो अच्छे भी। अच्छों का फल अच्छा मिलेगा। यही पाप और पुण्य है। दूसरों को दुःख दोगे तो दुःख मिलेगा और सुख दोगे तो सुख मिलेगा इसलिये अपने आचरण को सुधारो और सन्तुलित बनाओ कि कुकृत्य कम से कम हो और सुकृत्य अधिक से अधिक। तब बुरे कर्म कम बंधेगे और अच्छे कर्म अधिक तदनुसार बुरा फल कम मिलेगा और अच्छा फल अधिक। अच्छा फल यह होगा कि आत्मिक स्वरूप में विकास हो, अनावृत्तता आवे तथा आचरण की सुघड़ता पैदा हो। आचरण धीरे-धीरे इतना सुघड़ और स्वस्थ होता जायगा कि नया कर्मबंध नहीं होगा और पुराना झड़ता जायगा। यही गुण-दृष्टि के विकास का क्रम होगा।
__गुण दृष्टि के विकास का प्रारंभ होगा श्रेष्ठ आचरण के शुभारंभ से कि जीवन में नियम का अनुपालन शुरू किया जाय। नियम, व्रत या प्रत्याख्यान—एक ही बात है। ये व्रत स्वयं से भी सम्बन्धित होते हैं तो उनका हितकारी प्रभाव दूसरों पर भी पड़ता है। व्रत को दूसरे शब्दों में त्याग भी कह सकते हैं। अपने पास जो भौतिक सुख सामग्री है, उस पर से अपनी आसक्ति कम करते जावें-उसे छोड़ते जावें। यह पदार्थों का व्यक्तिगत त्याग उनके समाज में विकेन्द्रीकरण की प्रक्रिया का रूप भी ले लेता है। संविभाग तब आचरण का अभिन्न अंग हो जाता है। त्याग सामान्य से आंशिक होता है तब श्रावकत्व का व्रत होता है और जब वह त्याग सर्वथा पूर्ण हो जाता है तब साधुत्व का महाव्रत हो जाता है। यह साधुत्व की निसरणी ही अन्तिम साध्य तक पहुंचाती है। साधु 'जीओ और जीने दो' याने कि जीने की कला की जीवन्त मिसाल होता है। इसी अवस्था में गुण दृष्टि परिपक्क होती है—गुणस्थानों के उच्चतर सोपानों पर समुन्नत बनती हुई।
जीवन में श्रेष्ठ आचरण का अवरोधक माना गया है विषय और कषाय को। विषय कहते हैं इन्द्रियों के सुख को, इच्छाओं की लालसा को और सत्ता व सम्पत्ति की लिप्सा को। विषय ही राग द्वेष को जन्म देते हैं। जो अपने को अच्छा लगे—मनोज्ञ हो—उससे राग होता है और अमनोज्ञ के प्रति द्वेष । राग द्वेष की प्रतिक्रियाएं कषाय अर्थात् क्रोध, मान, माया और लोभ को जन्म देती है—राग से माया और लोभ तथा द्वेष से क्रोध और मान मुख्यतः फूटता है। विषय और कषाय के सम्मिलित कुप्रभाव से सम्पूर्ण जीवन प्रक्रिया में प्रमाद फैलता है और यही प्रमाद श्रेष्ठ आचरण को पनपने नहीं देता। गुण दृष्टि के विकास क्रम में इन्हीं विकारों को जड़ से उखाड़ना होता है और आचरण का प्रबल पुरुषार्थ नियम, संयम एवं तप के रूप में करना होता है। तभी ये सारे जीवन के विकार नष्ट होते हैं। जीवन तब निर्मल होता है और वही निर्मल जीवन दूसरों के लिये आदर्श बन जाता है।
यही गुण दृष्टि जब अपनी परिपूर्णता के चरम बिन्दु तक पहुंच जाती है, तब वही समता दृष्टि बन जाती है सबको समान दृष्टि से देखने वाली और सबको सत्य की कसौटी पर परखने वाली। समता दृष्टि का वह चरमादर्श रूप होता है। इसका यह अर्थ नहीं कि समता जीवन में इससे ४३४