Book Title: Aatm Samikshan
Author(s): Nanesh Acharya
Publisher: Akhil Bharatvarshiya Sadhumargi Jain Sangh

View full book text
Previous | Next

Page 458
________________ एवं सहयोग की परिपाटी को प्रारंभ करती है। समता मानव मन में पल्लवित एवं पुष्पित बनकर समग्र संसार को अपनी सुवास से आनन्दित बनाती है। समता के ये तीन चरण बहुत ही महत्त्वपूर्ण होते हैं जो मानव-मन को आन्दोलित, आप्लावित और आह्लादित बनाते हैं। अपनी अविकास की अवस्था में मानव-मन अज्ञान के अंधकार में भटकता है, तब उसे अपने ही हिताहित की संज्ञा नहीं होती। अपने ही भौतिक सुख की वितृष्णा में वह भ्रमित होता रहता है और उस सुख की भी उसे प्राप्ति कम और पीड़ा अधिक रहती है। उस समय उसे आवश्यकता होती है सम्यक् दृष्टि की याने कि उसकी मिथ्या दृष्टि मिटे और दृष्टि उन सत्यों को देखें जो उसके लिये अपने स्वस्थ आत्मविकास के प्रेरक होते हैं। उन सत्यों को देखना, समझना, परखना तथा अपनाने की प्रेरणा प्राप्त करना ही सम्यक दृष्टि का वरण कहलाता है। असत्य को सत्य मानकर तथा दःखदायक को सखदायक मानकर चलने वाले मिथ्यात्व से मक्त होना सबसे पहिले जरूरी है। मिथ्यात्व जब तक बना रहता है तब तक विपथगामिता चलती रहती है और जो विपथगामिता है, वही भटकाव है। इस भटकाव से सत्य-पथ मिले और सत्य-पथ पर चलने की धारणा बने—यही सम्यक् दृष्टि है। यह सम्यक् दृष्टि सम्यक् ज्ञान की अवधारणा से उत्पन्न होती है। यों तो ज्ञान प्रत्येक आत्मा में लक्षण रूप होता ही है क्योंकि ज्ञान के सर्वथा अभाव में जीवत्व ही नहीं रहता है, किन्तु वह ज्ञान अपने आत्म विकास के पथ को परख ले और अपने साध्य को भलीभांति पहिचान ले - तभी वह सम्यक्त्व में ढलता है। यों मनुष्य संसार की विविध कलाओं का अनूठा ज्ञान और विज्ञान प्राप्त करले, किन्तु जब तक वह अपने ही मन और अपनी ही इन्द्रियों के निग्रह तथा अपनी अनन्त इच्छाओं के निरोध का ज्ञान प्राप्त करके अपने जीवन को अहिंसक, सत्यमय एवं सुस्थिर नहीं बना पाता है, तब तक उसका अन्य कलाओं सम्बन्धी सारा ज्ञान और विज्ञान अपूर्ण ही कहलायगा। इसका स्पष्ट कारण है। जो स्वयं अपने जीवन को सर्वहितकारी बनाने की कला सीख नहीं पाता, वह दूसरा कितना ही क्यों न सीख जाय—जीवन जीने की कला नहीं सीख पाएगा। जीवन जीने की कला को दो शब्दों में परिभाषित करें कि जीओ और जीने दो। स्वयं इस तरह जीओ कि दूसरे भी सहजतापूर्वक जी सकें। यह दीखने में जितनी छोटी बात है, आचरण करने में उतनी ही कठिन और महत्त्व की बात है। जीवन जीने की सच्ची कला का ज्ञान ही सम्यक् दृष्टि का निर्माता बनता है। व्यक्ति अपने जीवन में अकेला नहीं रहता, वह सदा ही समूह या समाज में रहता है, जहां उसका अपने ही साथी मनुष्यों से तो अन्य सभी तरह के छोटे बड़े प्राणियों से हर समय सम्पर्क होता रहता है। उन सबके बीच में सबको सुख देते हुए और सुख लेते हुए वह कैसे जी सकता है—यही इसलिये कि प्रकाश तो है लेकिन वह उतने मोटे पर्दो से ढका हुआ है कि उसकी झलक भी नहीं दिखाई देती। ये पर्दे अपनी ही अकर्मण्यता के होते हैं जिन्हें कर्मों के पर्दे कहते हैं। कर्म सिद्धान्त के कर्म कोई अन्य नहीं, अपने ही किये हुए कर्म होते हैं। कल्पना करें कि कोई जान से या अनजान से अपनी ही आंख में कीला चुभो ले तो आंख जरूर फूट जायगी, दृष्टिहीन हो जायगी। तो यह अपना कर्म हुआ कि अपने हाथों अपनी आंख फोड़ली। अब दृष्टि वापस तभी प्राप्त हो सकती है जब उसकी योग्य चिकित्सा कराई जाय तथा वह चिकित्सा भी अपना श्रम और समय लेगी ही। इसके बावजूद भी ४३३

Loading...

Page Navigation
1 ... 456 457 458 459 460 461 462 463 464 465 466 467 468 469 470 471 472 473 474 475 476 477 478 479 480 481 482 483 484 485 486 487 488 489 490