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सहायता की अपेक्षा है। आप कल्पना करें कि उसकी दो प्रकार से सहायता करते हैं। एक तो आपने उसको खड़ा किया, अपने कंधे का सहारा दिया और उसे ले चले उसकी नहीं अपनी मर्जी या अपनी सुविधा से। समझिये कि आपने उसे शहर के बाहर एकान्त में छोड़ दिया और चले आये बिना यह परवाह किये कि उसका वहां क्या होगा? दूसरा प्रकार यह हो सकता है कि आप उसे अस्पताल ले गये, उसकी टांग का ईलाज कराया और जब वह तन्दुरुस्त हो गया तो उसे अपनी इच्छा के अनुसार जीवन बिताने के लिये स्वतंत्र छोड़ दिया। अब सोचिये कि कौनसा प्रकार सही है और किस प्रकार से जीवन का स्वस्थ विकास हो सकेगा?
___ बालक के साथ भी यही बात है। प्रारंभिक संस्कारों और शिक्षा से उसमें यह शक्ति पैदा की जाय कि वह स्वतंत्रतापूर्वक अपने जीवन विकास के सम्बन्ध में स्वयं निर्णय ले सके। उसे सहयोग दिया जाय लेकिन वास्तविक विकास भी उस पर थोपा नहीं जाय, क्योंकि थोपने पर मानसिकता अच्छाई तक के भी विरुद्ध हो जाती है। स्वयं के विवेक से जो ग्रहण किया जाता है, वही स्थिरता से पकड़ा जाता है। अतः स्वयं सक्षम बन कर बालक जो निर्णय लेगा, वह अधिकांशतः सही निर्णय होगा। यदि ऐसी निर्णायक शक्ति का विवेक प्रारंभ में ही सजग बना दिया जाता है तो निश्चय मानिये कि उस जीवन का विकास सदा स्वस्थ रीति से चलेगा।
सम्यक् निर्णायक शक्ति के स्थापित हो जाने के बाद समता का मार्ग खोज लेना और उस पर दृढ़ता पूर्वक गति करना कठिन नहीं रह जायगा, क्योंकि समता की आकांक्षा मानव मन के मूल में रहती है और वह प्रत्येक परिस्थिति में जब बाहर प्रकट होने का रास्ता ढूंढ़ती है तो अनुकूल परिस्थितियों में समता की आकांक्षा का फूलना और फलना अनिवार्य है।
समता का मूल्यांकन समता मानव-मन के मूल में होती है, जो गुण मूल में होता है, वह कभी न कभी अवसर एवं अनुकूलताएं प्राप्त करके अंकुरित होता ही है और तदनुसार पल्लवित एवं पुष्पित भी होता है। अतः समता का मूल्यांकन करने की अपेक्षा हम समता को मूल्य ही मानें तो वह एक अधिक सत्य मान्यता होगी। जो स्वयं जीवन का एक मूल्य है तथा सर्वोच्च मूल्य हैं, वह मूल्यांकन का गुण नहीं, सर्वभावेन ग्रहण करने वाला मूल्य होता है।
___ अतः समता दृष्टि भी है और कृति भी। दृष्टि जागृत होती है तो कृति आचरण में प्रकट होती है और कृति ज्यों-ज्यों परिपुष्ट होती है, त्यों त्यों दृष्टि निर्मल एवं प्रखर बनती जाती है। अन्ततोगत्वा कृति अपनी समुन्नति के शिखर पर पहुंच जाती है तो दृष्टि भी त्रिकाल एवं त्रिलोक दर्शी बन जाती है। तब दृष्टि ही दृष्टि सर्व सत्य हो जाती है। वही समत्व योग का पूर्ण सत्य होता
है।
समता की यह दृष्टि तीन चरणों में पूर्णत्व प्राप्त करती है व्यक्ति के विकासशील जीवन में। पहले वह सम्यक् दृष्टि होती है, फिर गुण दृष्टि बनकर ज्ञान, दर्शन एवं चारित्र के विभिन्न सोपानों पर आरूढ़ होती है और अन्त में समता दृष्टि बनकर सर्वजग हितकारिणी हो जाती है। एक व्यक्ति की अन्तरात्मा में समता का इस रूप में उच्चतम विकास होता है तो उसका बाह्य जगत् में भी यथाविध प्रसार होता है। भीतर की समुन्नत समता बाहर के वातावरण को भी समानता के रूप में प्रभावित करती है और परिवार के घटक से लेकर, समाज, राष्ट्र एवं सम्पूर्ण संसार में पारस्परिक सहृदयता
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