Book Title: Aatm Samikshan
Author(s): Nanesh Acharya
Publisher: Akhil Bharatvarshiya Sadhumargi Jain Sangh

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Page 455
________________ सांस्कृतिक और सुसभ्यता की धरोहर भी जल जायगी, जिसे अपने आदर्श ज्ञान और आचरण के बल पर कई महापुरुषों ने मानव जाति के सुपुर्द की है। वह महाविनाश समुपस्थित न हो—इस ओर आज सबका ध्यान केन्द्रित है। इसे एक रूप में सदासद् संग्राम की संज्ञा दी जा सकती है, क्योंकि जब ये वृत्तियां ही मानव हृदयों को मथती है, तभी उन का प्रवृत्तियों के रूप में विस्फोटन होता है। ऐसा सदासद् संग्राम आज मनुष्यों के भीतर भी चल रहा है तो बाहर भी चल रहा है। सद् शक्तियां दुर्बल भले हों लेकिन सजग और सावधान अवश्य है। आवश्यकता है कि इन सद् शक्तियों को अधिक से अधिक लोगों का सम्बल मिले और वे इतनी प्रभावशाली बन जांय कि असद् शक्तियों का शुभ परिवर्तन कर दिया जा सके। __ज्ञात संसार के ज्ञात समय में हुए जीवन विकास के गतिक्रम की समीक्षा से यह स्पष्ट हो जाता है कि सत्ता और सम्पत्ति जितने अंशों में अपने अर्जन और संचय की प्रक्रिया में व्यक्तिगत हाथों में केन्द्रित होती हुई चली जाती है, उतने ही अंशों में समाज में विषमता बढ़ती जाती है। कुछ बहुत अधिक सम्पन्न हो जाते हैं और अधिक अभावग्रस्तता की जिन्दगी जीने के लिये मजबूर हो जाते हैं। समता के सूत्र भी बंट जाते हैं-टूट जाते हैं। विषमता कभी अकेली नहीं आती और फैलती, वह अनीति, अन्याय और अत्याचार के अनेकानेक पाशविक और राक्षसी दुर्गुणों को साथ में लाती है एवं मानव मन को पतन के दल दल में फंसाती है। समझने का मूल बिंदु यह है कि व्यक्तिगत स्वार्थ और उसकी निरन्तर बढ़ती हुई तृष्णा के चक्रवात में सामूहिक या सामाजिक हित समाप्त हो जाता है, कुछ लोगों के भौतिक वर्चस्व के नीचे लाखों करोड़ों का जीवन निर्वाह दब जाता है तथा सबसे बड़ी क्षति यह होती है कि मानवीय मूल्य नष्ट होते चले जाते हैं। किन्तु आशा की किरणें लुप्त नहीं होती। सम्पन्न और अभावग्रस्त वर्गों की नीतिहीनता के बीच में भी समता और मानवता की ज्योति जलती रहती है। उसी ज्योति में प्रकाश भरना होता है प्रबुद्ध जनों को, जो मानवीय मूल्यों के लिये निरन्तर संघर्षशील रहते हैं। अतः आज के विश्व की जटिल विषमता के कारण हमारे सामने हैं जो मूल में व्यक्तिगत लिप्सा से बोतल के भूत की तरह फैले हैं। व्यक्तिगत सत्ता और सम्पत्ति की लिप्सा के इस भूत को जितना जल्दी तथा जितने पुरुषार्थ से वापस बोतल में बंद किया जा सके, उतना ही मानव जाति का कल्याण निकट लाया जा सकता है और उतना ही बाह्य एवं आभ्यन्तर समता का त्वरित विकास भी साधा जा सकता है। यह जीवन क्या है? जीवन विकास के इस गतिक्रम के उपसंहार में आखिर यह जानना जरूरी हो गया है कि यह जीवन क्या है ? इसका वस्तु स्वरूप क्या है और इस जीवन को तदनुसार वास्तविक कैसे बनाया जा सकता है? ज्ञान की चिन्तन गूढ़ता एवं आचरण की सत्यानुभूति के साथ जीवन की यह छोटी सी व्याख्या उभर कर आती है कि जो (१) सम्यक् निर्णायक हो तथा (२) समतामय हो, वही वास्तविक जीवन है। इसे जरा विस्तार से समझें। वर्तमान युग में मनुष्य एक सामाजिक प्राणी होता है। इसका तात्पर्य यह है कि मनुष्य जीवन एकाकी नहीं होता। वह समूह और समाज में जन्म लेता है, पनपता है और परिपक्वता ग्रहण

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