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जीवन विकास का गतिक्रम इस ज्ञात संसार के ज्ञात समय के इतिहास को यदि देखा जाय तो उससे मानव जीवन के वर्तमान विकास के गतिक्रम की एक रूपरेखा समझ में आती है। प्रारंभ में मनुष्य जीवन केवल प्रकृति की कृपा पर चलता रहा जब वन के वृक्षों से वह फल और निर्झर नदियों से जल प्राप्त करके अपना निर्वाह चलाया करता था। जीवन निर्वाह के लिये वह कोई पुरुषार्थ नहीं करता था। ऐसा ही उल्लेख युगलिया काल का भी आता है जब पुत्र और पुत्री का एक ही युगल जन्म लेता था जो बड़ा होकर प्रकृति पर ही निर्भर रहा करता था। इस युगलिया काल की परिसमाप्ति ऋषभदेव द्वारा धर्म-कर्म के प्रारंभ के साथ हुई। उन्होंने ही उस युग में असि (रण कौशल), मसि (स्याही-महाजन व्यापार) तथा कसि (कृषि) के व्यवसाय का प्रशिक्षण दिया। इसी अवस्था को आधुनिक इतिहासकारों ने आदिम काल कहा है जब प्रारंभ में अग्नि का आविष्कार भी नहीं हुआ था। अग्नि के आविष्कार के बाद भोजन पकाने की विधि शुरू हुई। इस आदिमकाल में जब प्रकृति द्वारा निर्वाह पूर्ति में अल्पता आने लगी, तब मनुष्य ने खेती तथा पशु पालन का व्यवसाय आरंभ किया। अब तक मनुष्य घूमन्तु बना हुआ था, लेकिन खेती ने उसे एक स्थान पर ठहरने के लिये विवश कर दिया। उसके बाद ही बस्तियों
और ग्रामों का क्रम शुरू हुआ। नदियों के किनारे किनारे ग्रामों और नगरों का विकास होने लगा। इस विकास से दो प्रकार की समस्याएं उत्त्पन्न हुई। एक तो सुरक्षा की समस्या तो दूसरी आवश्यक पदार्थों की पूर्ति की समस्या । सुरक्षा की दृष्टि से क्षत्रिय जाति का निर्धारण हुआ कि वे अपने ग्राम, नगर या क्षेत्र की अपनी तलवार के बल पर रक्षा करें और समूह उनका जीवन निर्वाह । आवश्यक पदाथों की पूर्ति की दृष्टि से वैश्यजाति बनी, जो एक स्थान से दूसरे स्थान पर आवश्यक पदार्थ पहुंचा कर समुचित लाभ अर्जित करने लगी। यही क्षत्रिय जाति धीरे-धीरे अपनी तलवार ही के बल पर शासक जाति बन गई जिसने सामन्त प्रथा तथा राजतंत्र को जन्म दिया। वैश्य जाति ने अपने व्यापार के क्षेत्र को बढ़ाते और क्षत्रिय जाति से रक्षा पाते हुए अपना वर्चस्व दूर दूर तक फैला दिया। चूंकि प्रकृति की विविध शक्तियों से मनुष्य का साक्षात्कार होने लगा और तब तक प्रकृति की उसकी जानकारी पर्याप्त नहीं थी अतः प्रत्येक शक्ति के अनुभव से उसकी पूजा और तदनुसार धार्मिक क्रियाकांडों का श्रीगणेश हुआ। इसकी जिम्मेदारी ब्राह्मण जाति ने ली। प्रारंभ से कृषि आदि व्यवसाय करने वाली उत्पादक जाति उसकी ही पीठ पर बनी दूसरी जातियों से दबती गई और उसका कार्य इन तीनों प्रभावशाली जातियों की सेवा के रूप में ढल गया जो शद्र जाति कहलाने लगी। इस प्रकार जहां आदिमका मनुष्यों के बीच में प्राकतिक समानता थी. वह विभिन्न जातियों ने अपने अपने शक्ति सन्त आधार पर समाप्त कर दी। व्यवसायों के जातिगत वर्गीकरण के साथ इस रूप में सबसे पहिले विषमता ने जन्म लिया।
___ पहिले मनुष्य का अपना कहलाने को कुछ नहीं था। वृक्ष सबके थे और नदी निर्झर भी सबके थे। स्वामित्व नाम की कोई स्थिति नहीं थी। उसको खेत का स्वामित्व आया, पदार्थों का स्वामित्व पैदा हुआ तो सम्पति और राज्य का स्वामित्व बना। इस प्रकार शुद्ध समता के वातावरण में रहने वाले मनुष्य अपने-अपने स्वामित्व की दृष्टि से भिन्न-भिन्न जातियों तथा वर्गों में बंट गये। फिर भी प्रारंभ में मानवीय मूल्यों की बहुलता थी, हृदय की सरलता और निर्मलता भी थी जिस के कारण वे एक दूसरे के सहायक और संपोषक रहे। किन्तु सत्ता और सम्पत्ति के व्यक्तिगत स्वामित्व ने मनुष्य के मन में अधिकार और तृष्णा की आग लगा दी। अपने लिये अधिक से अधिक संचित करना तथा अपने व अपनों के लिये ही उसका व्यय करना—ऐसी संकुचितता पैदा होने लगी-बढ़ने लगी।
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