Book Title: Aatm Samikshan
Author(s): Nanesh Acharya
Publisher: Akhil Bharatvarshiya Sadhumargi Jain Sangh

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Page 445
________________ संकल्प के बल पर रत्नत्रय की कठिनतर साधना करता रहूंगा और नीचे नहीं गिरूंगा। मेरी आत्मा क्रमशः पदोन्नति करती रहेगी और कर्मों के साथ निरन्तर युद्ध करती हुई अन्तिम विजय के सर्वोच्च छोर तक पहुंच कर ही चैन लेगी। यही मेरी आत्म विकास की महायात्रा का सानन्द समापन होगा जहां फिर मेरी आत्मा आनन्द की अजस्र धारा में ही सदा सदा के लिये आल्हादित बनी रहेगी । मेरी अन्तिम विजय के प्रेरक ये आप्त वचन हैं और मैं उनका निरन्तर चिन्तन करता हूं कि जिस प्रकार स्वर्ण अग्नि से तप्त होने पर भी अपने स्वर्णत्व को नहीं छोड़ता, वैसे ही मैं भी कर्मोदय के कारण उत्तप्त होने पर भी अपने स्वरूप को क्यों त्यागूं ? जिस प्रकार पका हुआ फल गिर जाने के बाद पुनः वृन्त से नहीं लग सकता, उसी प्रकार कर्म भी संपूर्ण रूप से मेरी आत्मा से वियुक्त होने के बाद पुनः मेरी वीतरागी आत्मा के साथ नहीं लग सकते हैं। जो अपने शुद्ध स्वरूप का अनुभव करता है, वह शुद्ध भाव को भी प्राप्त करता है, क्योंकि सम्यक् इस अवस्था को प्राप्त कर लेने पर मेरी आत्मा भी अन्तिम विजय की ओर स्वस्थ तथा स्थिर गति से आगे बढ़ती ही जायगी । मैं अनुभव करता हूं कि मेरी अपनी आत्मा ही ज्ञान रूप है, दर्शन रूप है और चारित्र रूप है । शास्त्र स्वयं ज्ञान नहीं है क्योंकि शास्त्र स्वयं में कुछ नहीं जानता है इसलिये ज्ञान अन्य है और शास्त्र अन्य है। जो ज्ञान है, वह मैं हूं और मैं ही शास्त्रों के स्रोत से ज्ञानार्जन करता हूं । चारित्र ही वास्तव में धर्म है, क्योंकि वहीं मेरी आत्मा को उसके धर्म में प्रतिष्ठित करता है और जो धर्म है, वही समत्व है। मोह और लोभ से रहित आत्मा का अपना शुद्ध परिणमन ही समत्व है। अतः आत्मा ही धर्म है अर्थात् धर्म आत्म स्वरूप होता है । समत्व से विभूषित आत्मा सुख दुःख में समान भाव रखती है और तब वह वीतरागी और शुद्धोपयोगी हो जाती है। आत्मा ज्ञान प्रमाण (ज्ञान जितनी) है, ज्ञान ज्ञेय प्रमाण है और ज्ञेय लोकालोक प्रमाण है जिससे ज्ञान सर्वव्यापी हो जाता है । यही आत्मा का सर्वव्यापी स्वरूप है । मैं जब अपने इस अनुभव में विराट् होता हूं तो अपने आत्म स्वरूप को वैसा ही विराट् बना लेने का दृढ निश्चयी भी बन जाता हूं। यही दृढ़ निश्चय मेरे आत्म-विकास की महायात्रा का सबल संगी होता है तथा उस के सफल समापन का श्रेयी भी । मेरी दृढ़ता ही मुझे सदासद् संग्राम में विजेता बनाती है तो वही मेरी अन्तिम विजय की प्रतीक बनती है । नवम सूत्र और मेरा संकल्प मैं शुद्ध, बुद्ध, सिद्ध निरंजन हूं। मैंने अनुभव कर लिया है कि मेरा मूल स्वरूप क्या है तथा जान लिया है कि मैं उसे कैसे प्राप्त करूं ? यह सारी विधि वीतराग देव बता चुके हैं तथा उनकी चेतावनियों पर भी मैं निरन्तर चिन्तन-मनन करता रहता हूं कि जिस प्रकार वृक्ष के पत्ते समय आने पर पीले पड़ जाते हैं और भूमि पर झड़ जाते हैं, उसी प्रकार मेरा यह जीवन भी आयु के समाप्त होने पर क्षीण हो जायगा, अतएव मैं क्षण भर के लिये भी प्रमाद न करूं। जैसे कुशा (घास ) की नोक पर हिलती हुई ओस की बूंद बहुत थोड़े समय के लिये टिक पाती है, ठीक वैसा ही मेरा यह जीवन भी क्षणभंगुर है । अतएव मैं क्षण भर के लिये भी प्रमाद न करूं। मेरा शरीर जीर्ण होता जा रहा है, केश पक कर सफेद हो चले हैं। शरीर का सब बल क्षीण होता जा रहा है। अतएव मैं क्षण भर के लिये भी प्रमाद न करूं। मैं इस संसार रूपी महासमुद्र को तैर चुका हूं, फिर किनारे पर आकर क्यों बैठ गया हूं? मैं उस पार पहुंचने की शीघ्रता करूं । समय बड़ा भयंकर है और इधर ४२०

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