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प्रतिक्षण जीर्ण शीर्ण होता हुआ शरीर है । अतएव मैं सदा अप्रमत्त होकर भारंड पक्षी ( सतत सतर्क रहने वाला एक पौराणिक पक्षी) की तरह विचरण करूं। मैं सोये हुओं के बीच में भी सदा जागृत रहूं और सदा अप्रमत्त बनूं । सकल इच्छाओं का निरोध करके अपनी स्वयं की आत्मा के द्वारा सत्य का अनुसंधान करूं। क्योंकि सत्य ही संसार में सारभूत है ।
अतः इस नवम सूत्र के संदर्भ में मैं संकल्प लेता हूं कि मैं निरन्तर अपने आत्मस्वरूप का चिन्तन करूंगा, गुणाधारित धर्म का पालन करूंगा तथा ज्ञानी व ध्यानी बनूंगा । ऐसा करके मैं अपने कर्मों के आवरण को उसी प्रकार उतार फेंकूंगा, जिस प्रकार सर्प अपनी केंचुली को उतार कर छोड़ देता है । मुझे यह मंत्र शीघ्र आत्मा विजेता बनने में सहायता करेगा कि जिसे तू मारना चाहता है, वह तू ही है, जिसे तू शासित करना चाहता है, वह भी तू ही है और जिसे तू परिताप देना चाहता है, वह भी तू ही है । जिसे जाना जाता है, वह आत्मा है तथा जानने की इस शक्ति से ही आत्मा की प्रतीति होती है । यही प्रतीति मेरी अन्तिम विजय की मूल भित्ति है। इसी भित्ति पर मैं अपने धारित जीवन का निर्माण करता हूं और अपने मूल आत्म स्वरूप को समाहित करने की दिशा में अग्रसर होता हूं।
तदनन्तर गुण विकास की क्रमिकता में समुन्नत होता हुआ, मनोरथों एवं नियमों का चिन्तन करता हुआ और उत्कृष्ट भाव -श्रेणियों में विचरण करता हुआ मैं अपने मूल स्वरूप के आलोक को प्राप्त कर लूंगा और शुद्ध, बुद्ध, सिद्ध बन जाऊंगा ।
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