Book Title: Aatm Samikshan
Author(s): Nanesh Acharya
Publisher: Akhil Bharatvarshiya Sadhumargi Jain Sangh

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Page 417
________________ निषेध करना अभ्युपगम विरोध है । लोक में जिस वस्तु का निश्चय छोटे से लेकर बड़े सभी व्यक्तियों को हो, उस का निषेध करने से यह कथन लोक बाधित भी है। अपने ही लिये 'मैं हूं या नहीं' इस प्रकार संशय करना अपनी माता को बंध्या बताने के समान स्व-वचन बाधित भी है। अतः आत्मा के अस्तित्व को न मानने वाले पक्ष में अपक्षधर्मता के कारण हेतु भी प्रसिद्ध है और प्रमाण सिद्ध आत्मा ही हेतु की प्रवृति होने के कारण हेतु विरुद्ध भी है। अतः मैं सूर्य के प्रकाश के समान निश्चित रूप से अनुभव करता हूं कि आत्मा प्रत्यक्ष है। क्योंकि आत्मा के गुण स्मृति, जिज्ञासा (जानने की इच्छा ), चिकीर्षा करने की इच्छा और जिगमिषा, संशय आदि प्रत्यक्ष हैं। जिस वस्तु के गुण प्रत्यक्ष होते हैं, वह वस्तु भी प्रत्यक्ष होती है, जैसे घट के गुण, रूप आदि प्रत्यक्ष होने पर घट भी प्रत्यक्ष होता है । यदि गुणों के ग्रहण से गुणी का ग्रहण न माना जाय तो भी गुणों के ज्ञान से गुणवाले (गुणी ) का अस्तित्व तो अवश्य ही सिद्ध हो जाता है। इस प्रकार दार्शनिक दृष्टि से भी आत्मा का अस्तित्व अखंडनीय है और मेरी मान्यता सुदृढ़ बन जाती है कि मैं आत्म स्वरूपी हूं— मैं आत्मा हूं। 1 मैं आत्मा हूं तो कैसी आत्मा हूं ? इस चिन्तन में मैं अनुभव करता हूं कि मैं अभी बहिरात्मा हूं क्योंकि जब तक आत्मा को सम्यक् ज्ञान नहीं होता और वह मोहवश शरीर आदि बाह्य पदार्थों में आसक्त रहती है कि 'यह मैं ही हूं—मैं इनसे भिन्न नहीं हूं' तब तक वह शरीर आदि को अपने साथ जोड़े रखने के अज्ञान के कारण बहिरात्मा होती है । 'अन्तरात्मा भी हूं क्योंकि जब मैं बाह्य भावों को दूर हटाकर शरीर से पृथक् शुद्ध ज्ञान - स्वरूप आत्मा में ही आत्मा का निश्चय करता हूं तो मैं आत्म-ज्ञानी पुरुष के रूप में अन्तरात्मा हो जाता हूं। मैं अपने मूल आत्म स्वरूप की दृष्टि से परमात्मा हूं। जब मेरी आत्मा अपने सकल कर्मों का नाश करके अपना शुद्ध ज्ञान स्वरूप प्राप्त कर लेगी और वीतराग तथा कृतकृत्य हो जायगी, तब वह शुद्धात्मा-परमात्मा बन जायगी । मेरी आत्मा के तीन रूप इस प्रकार के भी होते हैं - बद्ध, बुद्ध और सिद्ध । जब तक मेरी आत्मा कर्म समूह से बंधी हुई रहती है, तब तक वह बद्ध आत्मा है, जब वह घाती कर्म बन्धनों का क्षय करके वीतरागी हो जायगी तो वह बुद्ध आत्मा बन जायगी और जब वह सम्पूर्ण कर्म क्ष करके अन्तिम बन्धन रूप शरीर से भी मुक्त हो जायगी, तब वह सिद्ध आत्मा हो जायगी । मेरी आत्मा के ये विभिन्न रूप उसकी पर्यायें हैं, जबकि वह शुद्ध रूप में एक द्रव्य है । गुणों के समूह को द्रव्य कहते हैं, जो पर्यायों के रूप में बदलता रहता है । और गुण उसे कहते हैं जो द्रव्य के आश्रित रहे । गुण सदैव द्रव्य के अन्दर ही रहता है, उसका स्वतंत्र कोई स्थान नहीं रहता है । द्रव्य और उसके गुणों में रहने वाली अवस्थाओं को पर्याय कहते हैं । कुल छः प्रकार के द्रव्यों में पांच द्रव्य जड़ हैं और छठा द्रव्य आत्मा है। आत्मा का गुण चैतन्य है और उसमें परिवर्तित होने वाली अवस्थाएं उसकी पर्याय कहलाती हैं। पर्यायें गुण और द्रव्य दोनों में रहती हैं। मेरी आत्मा अरूपी द्रव्य है जिसमें वर्ण, गंध, रस और स्पर्श नहीं पाये जाते हैं तथा जो अमूर्त है पुद्गल के अलावा सभी पांचों द्रव्य अरूपी होते हैं । मेरी आत्मा भी अरूपी है और उसका गुण या लक्षण चैतन्य है । यों उसमें चार गुण हैं— अनन्त ज्ञान, अनन्त दर्शन, अनन्त चारित्र और अनन्त वीर्य । मेरी आत्मा की पर्यायें भी चार हैं – अव्याबाध अनवगाह, अमूर्तिकता तथा अगुरुलधुत्व अनन्त ज्ञान आदि चारों गुण केवल आत्म द्रव्य में ही पाये जाते हैं, अन्य किसी द्रव्य में नहीं । किन्तु ३६२

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