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आत्म स्वरूप के इस वृहद् विश्लेषण से मुझे विशिष्ट ज्ञान प्राप्त करना है, उस पर सच्ची श्रद्धा बनानी है और उस आस्थायुक्त ज्ञान को सदनुष्ठानों में ढालना है ताकि मैं अपनी आत्मा को उसका ही ज्ञाता विज्ञाता बनाकर तथा उपकारी मित्र का रूप देकर विरत बनूं -देश विरति से सर्व विरति के सोपानों पर आरोहण करूं। आत्म विकास की मेरी महायात्रा की यही गंतव्य दिशा है।
आत्मानुभव की सर्वोच्च अवस्था में विचरण करते हुए मेरी अनुभूति होगी कि उस का वर्णन करने में सभी शब्द लौट आते हैं और कोई तर्क भी प्रभावी नही होता है। बुद्धि भी उस विषय को ग्रहण करने में सक्षम नहीं होती। मेरी आत्मा की वही अवस्था आभामय होती है और वह किसी अन्य स्थान पर नहीं, अपने ही भीतर आत्म ज्ञाता और आत्मदृष्टा के रूप में होती है। वहीं अवस्था न बड़ी है, न छोटी है, न गोल है, न त्रिकोण है, न चतुष्कोण है और न परिमंडल है। न वह काली है, न नीली है, न लाल है, न पीली है और न सफेद है। वह न सुगंधमयी है, न दुर्गंधमयी है और न तीखी है, न कई है, न कषैली है. न खड़ी है तथा न मीठी है। वह न कठोर है, न कोमल है, न भारी है, न हलकी है, न ठंडी है, न गर्म है, न चिकनी है और न रूखी है। वह न लेश्यावान् है, न उत्त्पन्न होने वाली है और उसमें कोई आसक्ति भी नहीं है। न वह स्त्री है, न पुरुष और न इसके विपरीत नपुंसक। वह शुद्धात्मा है, ज्ञाता है और अमूर्छित है। उसकी कोई तुलना नहीं। वह एक अमूर्तिक सत्ता है। पदातीत के लिये उसका कोई नाम भी नहीं है। वह शुद्धात्मा न शब्द है, न रूप है, न गंध है, न रस है और न स्पर्श है। बस इतने ही वर्णन से आत्म स्वरूप का ज्ञान पर्याप्त है। तदनुसार शुद्ध स्वरूप के चिन्तन में मुझे प्रतिभासित होगा कि मैं न दीर्घ, न ह्रस्व, न स्त्री, न पुरुष और न नपुंसक हूं और वर्ण, गंध, रस एवं स्पर्श वाला भी नहीं हूं। मैं तो अशरीरी, अरूपी, शाश्वत, अवेदी, अखेदी, अलेशी और अजर अमर आदि गुणों से सम्पन्न हूं। ये वे आध्यात्मिक रहस्य हैं जिनमें प्रगति करने के लिये मेरा कर्तव्य है कि मैं समतादर्शी वीतराग देवों की आज्ञा में चलूं –यही मेरी आत्मा के स्वभाव और धर्म की प्राप्ति का प्रशस्त पथ है। जैसे जल में नहीं डूबा हुआ द्वीप कष्ट में फंसे हुए समुद्र के यात्रियों के लिये आश्रय स्थल होता है, उसी प्रकार समतादर्शी द्वारा प्रतिपादित धर्म सांसारिक दुःखों में फंसे हुए प्राणियों के लिये आश्रय स्थल होता है।
ऐसे आत्मोत्थानकारी सिद्धान्तों के ज्ञान एवं आचरण में विभोर बनकर मेरी आत्मा स्वयमेव को उद्बोधित करती है—हे आत्मन्, तू ही तेरा मित्र है, फिर बाहर की ओर मित्र की खोज क्यों करती है ? जिसे तुम ऊंचे आध्यात्मिक मूल्यों में जमा हुआ जानो, उसे तुम आसक्ति से दूरी पर जमा हुआ जानो और जिसे तुम आसक्ति से दूरी पर जमा हुआ जानो, उसे तुम ऊंचे आध्यात्मिक मूल्यों पर जमा हुआ जानो। अतः तुम अपने मन का निग्रह करके ही जीना सीखो और यदि ऐसा करोगे तो दुःखों से छूट जाओगे। तुम ही सत्य का निर्णय करो क्योंकि जो सदा सत्य की आज्ञा में उपस्थित रहता है, वही मेधावी मृत्यु को जीत लेता है। तुम सुन्दर चित्त वाले संयम युक्त बन कर जब धर्म को ग्रहण करोगे तो श्रेष्ठतम को भी भली भांति देख सकोगे। संयमयुक्त चित्तवाले होने से कभी व्याकुलता में नही फंसोगे। तुम अपनी ही अनुपम आत्मानुभूति को जान लो तो सभी विषमताओं को भी जान लोगे। प्रमादी विषमताधारी होता है और इसी कारण सभी ओर से भयभीत भी होता है जबकि अप्रमादी समताधारी किसी ओर से भी भयभीत नहीं होता, अतः तुम भी प्रमाद छोड़कर समता को ग्रहण कर लो और निर्भय बन जाओ।
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