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धूपन-अपने वस्त्रादि को धूप आदि देकर सुगंधित करना। (४६) वमन-औषधि लेकर वमन करना। (४७) वस्तिकर्म–मल आदि की शुद्धि के लिये वस्तिकर्म करना। (४८) विरेचन—पेट साफ करने के लिये जुलाब लेना। (४६) अंजन-आंखों में अंजन लगाना । (५०) दंतकाष्ठ—दतौन आदि से दांत साफ करना । (५१) गात्राभ्यंग सहस्रपाक आदि तेलों से शरीर का मर्दन करना तथा (५२) विभूषण-वस्त्र, आभूषण आदि से शरीर की शोभा करना। इन सभी बावन अनाचार को टालते हुए मैं अपनी संयम-यात्रा करता हूं।
मेरे साधु होने का स्पष्ट अर्थ है कि मैं सम्यक् ज्ञान, दर्शन, चारित्र द्वारा मोक्ष की साधना में रत रहता हूं और तदनुसार अपने में उल्लिखित सत्ताईस गुणों का सद्भाव रहे—ऐसा यल करता हूं। वे गुण इस प्रकार हैं- (१-५) अहिंसा, सत्य, अस्तेय, ब्रह्मचर्य और अपरिग्रह रूप पांच महाव्रतों का सम्यक् पालन करना। (६) रात्रि भोजन का त्याग करना। (७-११) श्रोत्रेन्द्रिय, चक्षुरिन्द्रिय, घ्राणेन्द्रिय, रसनेन्द्रिय, स्पर्शेन्द्रिय इन पांचों इन्द्रियों को वश में रखना –न इष्ट में राग और न अनिष्ट में द्वेष । (१२) भावसत्य-अन्तःकरण की भावनाओं की शुद्धि रखना। (१३) करण सत्य-वस्त्र, पात्र आदि की प्रतिलेखना तथा अन्य बाह्य क्रियाओं को शुद्ध उपयोग पूर्वक करना। (१४) क्षमा क्रोध और मान का निग्रह अर्थात् दोनों कषायों को उदय में नहीं आने देना। (१५) विरागता–निर्लोभी वृत्ति रखना अर्थात् माया और लोभ कषायों को उदय में नहीं आने देना। (१६) मन की शुभ प्रवृत्ति (१७) वचन की शुभ प्रवृत्ति (१८) काया की शुभ प्रवृत्ति (१६-२४) पृथ्वीकाय, अपकाय, तेडकाय, वायुकाय, वनस्पतिकाय और त्रसकाय रूप छः काय के जीवों की रक्षा करना। (२५) योग सत्य—मन, वचन, काया रूप तीनों योगों की अशुभ प्रवृति का निरोध तथा शुभता में प्रवृत्ति । (२६) वेदनातिसहनता-शीत ताप आदि वेदना को समभाव से सहन करना तथा (२७) मारणन्तिकातिसहनता—मृत्यु के समय आने वाले कष्टों को सहन करना और ऐसा विचार करना कि ये कष्ट मेरे आत्म कल्याण के लिये हैं।
मैं सच्चा साधु या भिक्षु बनने का निरन्तर अध्यवसाय करता रहता हूं क्योंकि (१) मैं वीतराग देवों की आज्ञानुसार दीक्षा लेकर उनके वचनों में दत्तचित्त रहता हूं और न स्त्रियों के वश में होता हूं तथा न त्यागे हुए विषयों का फिर से सेवन करता हूं। (२) मैं पृथ्वी को न स्वयं खोदता हूं, न दूसरे से खुदवाता हूं, सचित्त जल न स्वयं पीता हूं, न दूसरे को पिलाता हूं, तीक्ष्ण शस्त्र के समान अग्नि को न स्वयं जलाता हं. न दसरे से जलवाता है। (३) मैं पंखे आदि से हवा न स्वयं करता है न दूसरे से करवाता हूं, वनस्पति काय का छेदन न मैं स्वयं करता हूं, न दूसरे से करवाता हूं और न बीज आदि सचित्त वस्तुओं का आहार करता हूं। (४) मैं औदैशिक या अन्य प्रकार से सावध आहार का सेवन नहीं करता और भोजन न स्वयं बनाता हूं, न दूसरे से बनवाता हूं न बनाने वाले को अच्छा समझता हूं। (५) मैं वीतराग देवों के वचनों में अटूट श्रद्धा रखते हुए छः काय के जीवों को अपनी आत्मा के समान मानता हूं, पांच महाव्रतों का पालन करता हूं तथा पांच आश्रवों का निरोध करता हूं। (६) मैं चार कषायों को छोड़ता हूं, परिग्रह से रहित होता हूं एवं ग्रहस्थों के साथ
आधिक संसर्ग नही रखता हूं। (७) मैं सम्यक् दृष्टि हूं, विवेकवान हूं तथा ज्ञान, तप व संयम पर विश्वास रखता हूं, तपस्या द्वारा पुराने पापों की निर्जरा करता हूं और अपने मन, वचन, काया को वश में रखता हूं। (८) मैं विविध प्रकार के अशन, पान, खादिम और स्वादिम को प्राप्त कर उन्हें दूसरे या तीसरे दिन के लिये न संचित रखता हूं, न दूसरे से रखवाता हूं।
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