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निर्यापकत्त्व—अर्थ की संगति करते हुए पढ़ाना। यह संगति प्रमाण, नय, कारक, समास, विभक्ति आदि के साथ हो । पूर्वापर संबंध के साथ अर्थ विन्यास किया जाय । (६) मति सम्पदा – मतिज्ञान की उत्कृष्टता । चार भेद (अ) अवग्रह, (ब) ईहा, (स) अवाय व (द) धारणा । (७) प्रयोगमति सम्पदा — अवसर का ज्ञाता कि शास्त्रार्थ या विवाद किस समय किया जाय । चार भेद - (अ) अपनी शक्ति को पहले तोल ले, (ब) सभा को समझ कर शास्त्रार्थ में प्रवृत्त हो, (स) क्षेत्र को समझ कर उपसर्ग आदि का अनुमान लगाले, व ( द ) शास्त्रार्थ के विषय को भली प्रकार समझ लें । (८) संग्रहपरिज्ञा सम्पदा-वर्षावास आदि के लिये मकान, पाटला, वस्त्रादि का ध्यान रखकर आचार के अनुसार संग्रह करना । चार भेद - (अ) मुनियों के लिये योग्य स्थान देखना, (ब) पीढ़, फलक, शय्या, संथारे वगैरा का ध्यान रखना, (स) समय के अनुसार सभी आचारों का पालन करना तथा कराना, एवं (द) अपने से बड़ों का विनय करना । प्रवचन सारोद्धार के टीकाकार के अनुसार आचार्य के छत्तीस गुण इस प्रकार भी गिनाये गये हैं- ( १ ) देश युत - साढ़े पच्चीस आर्य देशों में जन्म लेने वाला व आर्य भाषा जानने वाला, (२) कुल युत - पितृ पक्ष से उत्तम कुल में उत्त्पन्न, (३) जातियुत — मातृपक्ष से उच्च जाति में उत्त्पन्न, (४) रूपयुत – स्वरूपवान्, गुणवान् तथा आदेय वचन युक्त, (५) संहनन युत - विशिष्ट शारीरिक सामर्थ्य युक्त, (६) धृतियुत - विशिष्ट मानसिक स्थिरता एवं धैर्य का धारक, (७) अनाशंसी — श्रोताओं को खरी बात सुनाने वाला निस्पृही, (८) अविकत्थन—आत्मश्लाघा नहीं करने वाला, मितभाषी (६) अमायी - अशठ और सरल परिणामी, (१०) स्थिर परिपाटी – निरन्तर अभ्यास से अनुयोग क्रम को स्थिर कर लेने वाला तथा व्याख्यान में स्खलित नहीं होने वाला, (११) गृहीत वाक्य — उपादेय वचन के साथ सारगर्भित बोलने वाला, (१२) जितपर्षत् — परिषदा को वश में करने में कुशल, (१३) जितनिद्र – निद्रा को जीतने वाला, थोड़ा सोने व अधिक चिन्तन-मनन करने वाला, (१४) मध्यस्थ- सभी शिष्यों के प्रति समभाव तथा सभी का समान पूज्य, (१५-१७) देश, काल और भाव का ज्ञाता (१८) आसन्नलब्ध प्रतिभ— समयानुकूल तत्काल बुद्धि की उत्पत्ति जिससे अन्य तीर्थी प्रभावित हो तथा शासन की महती प्रभावना हो, (१६) नानाविध देश भाषज्ञ - अनेक देशों की भाषाओं का ज्ञाता, (२०-२४) ज्ञान, दर्शन, चारित्र, तप और वीर्य - इन पांच आचारों का उत्साह व उपयोगपूर्वक पालन करने वाला, (२५) सूत्रार्थ तदुभय विधिज्ञ - सूत्रागम, अर्थागम और तदुभयागम का ज्ञाता - व्याख्याता, (२६-२६) आहारण हेतु पनय निपुण – आहारण अर्थात् दृष्टान्त, हेतु, उपनय और नय में कुशल, (३०) ग्राहणा कुशल – दूसरों को समझाने की कला में कुशल, ( ३१ - ३२) स्व- पर समय वेदी अपने व अन्य तीर्थियों के सिद्धान्तों का जानकार, खंडन मंडन में सिद्धहस्त, (३३) गंभीर - तुच्छ व्यवहार के अभाव में गौरव का रक्षक, (३४) दीप्तमान् – तेजस्वी प्रभाव सहित, (३५) शिव - कोप न करने वाला लोक कल्याणी एवं (३६) सोम – सौम्य एवं शान्त दृष्टि वाला ।
आचार्य पांच प्रकार के कहे गये हैं- ( १ ) प्रव्राजकाचार्य - सामायिक आदि व्रत का आरोपण करने वाले, (२) दिगाचार्य - सचित्त, अचित्त, मिश्र वस्तु की अनुमति देने वाले, (३) उद्देशाचार्य – सर्वप्रथम श्रुत का कथन करने वाले या मूल पाठ सिखाने वाले (४) समुद्देशानुज्ञाचार्य - श्रुत की वाचना देने वाले तथा गुरु के न होने पर श्रुत को स्थिर परिचित करने की अनुमति देने वाले एवं (५) आम्नायार्थ वाचकाचार्य - उत्सर्ग अपवाद रूप आम्नाय अर्थ के कहने वाले।
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