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पूजा से पूजित हैं । त्रिलोक पूज्यता एवं इन्द्रादिकृत पूजा ही पूजातिशय है। इनके चौतिस अतिशय भी पूजा रूप ही हैं। (४) वागतिशय - अरिहन्त राग द्वेष से परे होते हैं तथा पूर्ण ज्ञान के धारक होते हैं अतः उनके वचन सत्य एवं परस्पर बाधा रहित होते हैं। वाणी की यह विशेषता ही वचनातिशय है ।
अरिहन्त के बारह गुण ये होते हैं - ( १ ) अनाश्रव (२) अमम (३) अकिञ्चन्य ( ४ ) छिन्नशोक (५) निरुपक्षेप (६) व्यपगतराग-द्वेष-मोह (७) निर्ग्रन्थ प्रवचनोपदेशकत्व (८) शास्त्रनायक (६) अनन्तज्ञानी (१०) अनन्तदर्शनी (११) अनन्त चरित्री (१२) अनन्त वीर्य संपन्न ।
अरिहंत देव बारह गुण सहित होते हैं तो इन अठ्ठारह दोषों से रहित भी होते हैं - ( १ ) दानान्तराय (२) लाभान्तराय (३) वीर्यान्तराय ( ४ ) भोगान्तराय (५) उपभोगान्तराय ( ६ ) मिथ्यात्व (७) अज्ञान (८) अविरति (६) काम (भोगेच्छा) (१०) हास्य (११) रति (१२) अरति (१३) शोक (१४) भय (१५) जुगुप्सा (१६) राग ( १७ ) द्वेष तथा (१८) निद्रा । ये अठ्ठारह दोष एक अन्य अपेक्षा इस प्रकार भी गिनाये गये हैं – (१) हिंसा (२) मृषावाद (३) अदत्तादान (४) क्रीड़ा (५) हास्य (६) रति (७) अरति (८) शोक (६) भय (१०) क्रोध (११) मान (१२) माया (१३) लोभ (१४) मद (१५) मत्सर (१६) अज्ञान ( १७ ) निद्रा तथा (१८) राग (प्रेम) ।
मैं अरिहंत देव हूँ वीतरागी, सर्वथा पाप एवं दोष रहित । मेरा अरिहंत पद इस लोक में मंगल रूप, उत्तम तथा शरण रूप माना गया है। मैं मंगल रूप इस कारण हूँ कि मैंने समस्त आत्माओं के मंगल का मार्ग प्रशस्त बना दिया है। उत्तम रूप इस कारण कि जीवन - विकास का इससे अधिक उत्तम स्वरूप दूसरा नहीं हो सकता तथा शरण रूप इस कारण कि कोई भी सांसारिक आत्मा इस पद की शरण में आकर अपने स्वरूप को अशरण बना सकती है। मैंने चार घनघाती रूप कर्मों का नाश कर दिया है और मेरी आत्मा सिद्ध गति के योग्य बन गई है। मुझे पूजा की कोई अभिलाषा नहीं है, किन्तु देव और इन्द्र मेरे जीवन को पूजा का स्थल इसलिये बनाते हैं कि भव्य आत्माएं प्रभावित होकर अपने उत्थान का मार्ग सरलता से खोज ले और अपने विकास की महायात्रा पर अविलम्ब प्रस्थान करदें। मैं केवल ज्ञान एवं केवल दर्शन से सम्पन्न बनकर तीनों कालों तथा तीनों लोकों के सभी द्रव्यों और उनकी समस्त पर्यायों को स्पष्ट देखता हूं तथा वस्तुओं यथार्थ स्वरूप को सब पर प्रकट करता हूं जिससे मिथ्यात्व का अंधकार दूर हो तथा चहुं ओर सम्यक्त्व का देदीप्यमान प्रकाश प्रसारित हो जाय - समतामय वातावरण बन जाय ।
मैं वीतरागी अरिहंत हूं—मेरा द्वेष भी नष्ट हो गया है तो राग भी व्यतीत हो गया है। मैं समतादर्शी हो गया हूं—–सम्पूर्ण संसार को समभाव से जानता हूं और समदृष्टि से देखता हूं—सभी आत्माएं मेरे लिये समान हो गई हैं। इसी दृष्टि से मैं उपदेश देता हूं जो सबके लिये समान रूप से हितकारी होते हैं । इसीलिये मेरी लोकोत्तमता है।
मैं शुद्ध, बुद्ध, सिद्ध हूं
मैं अरिहंत पद में शेष रहे चारों अघाती कर्मो का भी नाश कर देता हूं और शुद्ध, बुद्ध, सिद्ध हो जाता हूं। ज्यों ही मैं सर्व कर्मों का क्षय कर देता हूं कि मैं जन्म-मरण रूप इस संसार से मुक्त हो जाता हूं। मेरी आत्मा कृतकृत्य हो जाती है और लोक के अग्र भाग पर सिद्ध-शिला से
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