Book Title: Aatm Samikshan
Author(s): Nanesh Acharya
Publisher: Akhil Bharatvarshiya Sadhumargi Jain Sangh

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Page 425
________________ दिन प्रातः एवं सायं प्रतिक्रमण के माध्यम से अपने पापों की आलोचना करता हूं, प्रायश्चित लेता हूं तथा भविष्य में उन्हें न दोहराने का संकल्प ग्रहण करता हूं। संयम की रक्षा के लिये कठिन परीषह भी मैं हर्षपूर्वक सहता हूं। अपने आचार के अनुसार निर्दोष आहार न मिले तो मैं स्वेच्छापूर्वक अनशन तप कर लेता हूं तथा निर्दोष जल न मिलने पर शान्तिपूर्वक तृषा को भी सह लेता हूं। मेरी प्रत्येक वृत्ति और प्रवृत्ति समता वृत्ति को बढ़ाने वाली होती है कि मैं समभावी और समदृष्टि बनते हुए समताधारी बनूं। ___मैं क्षान्त, दान्त, निरारंभी हूं। मेरी क्षमा और मेरी जितेन्द्रियता मुझे छः काया के जीवों के रक्षक के रूप में निरारंभी बनाती है। समस्त त्रस एवं स्थावर जीवों की रक्षा करने के कारण मैं अनाथ नहीं रहा, उनका नाथ हो गया। जो निग्रंथ धर्म को अंगीकार तो कर लेते हैं किन्तु परीषह एवं उपसर्गों के आने पर कायर बन जाते हैं और साधु धर्म का सम्यक् पालन नहीं करते हैं, यह उनकी अनाथता होती है। मैं ऐसी अनाथता को समझता हूं तथा उसे पास में भी नहीं फटकने देता। __मैं पांच समिति और तीन गुप्ति का आराधक हूं। इस रूप में मैं प्राणातिपात से निवृत्त होने के लिये यतनापूर्वक जो सम्यक् प्रवृति करता हूं वही समिति है। मैं ज्ञान, दर्शन एवं चारित्र के निमित्त युग परिमाण भूमि को एकाग्र चित्त से देखते हुए राजमार्ग आदि में यतनापूर्वक गमनागमन करता हूं, यतनापूर्वक ही भाषण में प्रवृत्ति करता हूं, गवैषण, ग्रहण और ग्रास सम्बन्धी ऐषणा के दोषों से अदूषित विशुद्ध आहार, पानी, उपकरण, शय्या, पार आदि औपग्रहिक उपधि को ग्रहण करता हूं, यतनापूर्वक भांड पात्र आदि उपकरणों को देखता, पूंजता व रखता हूं तथा उपयोग पूर्वक परिठवने योग्य लघुनीत, मल, मैल आदि को परिठवता हूं। मैं इस प्रकार अशुभ योग से निवृत्त होकर शुभ योग में प्रवृत्ति करता हूं। मैं मनोगुप्ति के माध्यम से पापपूर्ण संकल्प-विकल्प नहीं करते हुए योग निरोध के साथ अन्तरात्मा की अवस्था को प्राप्त होता हूं, वचन के अशुभ व्यापार को त्याग कर विकथा न करते हुए मौन रहता हूं एवं कायिक व्यापारों में प्रवृत्ति न करते हुए अयतना का परिहार कर अशुभ व्यापारों का त्याग करता हूं। मैं आहार की गवैषणा की शुद्धि के लिये सोलह उद्गम दोष, सोलह उत्पादन दोष तथा दस ऐषणा दोष कुल बयालीस दोषों का परिहार करता हूं। उद्गम दोष हैं -(१) आधाकर्मकिसी खास साधु को मन में रखकर उसके निमित्त से सचित्त वस्तु को अचित्त करना या अचित्त वस्तु को पकाना। यह दोष प्रतिसेवन, प्रतिश्रवण, संवसन और अनुमोदन रूप चार प्रकार से लगता है। (२) औद्देशिक –सामान्य याचकों को देने की बुद्धि से आहार आदि तैयार करना। किसी खास साधु के लिये बनाया गया आहार यदि वही साधु ले तो आधाकर्म दोष और दूसरा साधु ले तो औद्देशिक दोष होता है। (३) पूर्तिकर्म-शुद्ध आहार में आधा कर्म आदि का अंश मिल जाना। ऐसा थोड़ा सा अंश भी पूरे निर्दोष आहार को सदोष बना देता है। (४) मिश्रजात - अपने और साधु के निमित्त से एक साथ पकाना। (५) स्थापन—साधु को देने की इच्छा से कुछ काल के लिये आहार को अलग रख देना। (६) प्राभृतिका–साधु को विशिष्ट आहार बहराने के लिये जीमनवार या निमंत्रण के समय को आगे पीछे करना। (७) प्रादुष्करण—आहार आदि को अंधेरी जगह में से प्रकाश वाली जगह में लाना। (८) क्रीत–साधु के लिये आहार मोल लाना। (६) प्रामित्य—साधु के लिये उधार लिया हुआ आहार लाना। (१०) परिवर्तित–साधु के लिये आटा-साटा करके आहार ४००

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