Book Title: Aatm Samikshan
Author(s): Nanesh Acharya
Publisher: Akhil Bharatvarshiya Sadhumargi Jain Sangh

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Page 423
________________ निषेधन करते हुए भी उसका वर्णन इस प्रकार करना कि जिससे सुनने वाला भ्रम में पड़ जाय तथा (३) बुरा वचन जिससे सुनने वाले को कष्ट हो या सत्य होने पर भी जिस कथन में दूसरे को हानि पहुंचाने की दुर्भावना हो । यद्यपि असत्कथन को ही अनृत कहा गया है, किन्तु मन, वचन और काया से असत्य का अर्थ लेने पर असत् चिन्तन, असत्कथन और असदाचरण से भी मैं दूर रहता हूं। मैं किसी के विषय में न बुरा सोचता हूं, न बुरा कहता हूं और न बुरा आचरण करता हूं। मैं सत्य की शोध को सफल बनाने के लिये प्रमत्त योग का त्याग करता हूं, मन, वचन, काया की प्रवृत्ति में एकरूपता लाने का अभ्यास करता हूं तथा क्रोधादि कषाय का भी त्याग करता हूं क्योंकि कई बार क्रोधादि के आवेश में भी असत्य भाषण हो जाता है। सत्य होने पर भी मैं दुर्भावना से न किसी बात को सोचता हूं, न बोलता हूं और न करता हूं। ___मैं अदत्तादान को स्तेय कर्म मानता हूं और उसका मैं सर्वथा त्याग करता हूं। दूसरे के अधिकार की कोई भी वस्तु चाहे वह तृण के समान मूल्यरहित हो—मुझे अभीष्ट नहीं है। किसी वस्तु के प्रति लालसा की वृत्ति ही मेरे लिये त्याज्य है। मैं मानता हूं कि कहीं भी ग्राम नगर में अथवा अरण्य में सचित्त, अचित्त, अल्प, बहु, अणु, स्थूल आदि वस्तु को उसके स्वामी की बिना आज्ञा लेना अदत्तादान है तो प्राणधारी आत्मा का प्राणहरण भी उसकी आज्ञा न होने से अदत्तादान है। वीतराग देवों द्वारा निषिद्ध आचरण का सेवन करना भी अदत्तादान है तो गुरु की आज्ञा के बिना कोई वस्तु ग्रहण करना भी अदत्तादान है। मैं सचित्त पदार्थ हो या अचित्त पदार्थ, अल्पमूल्य पदार्थ हो या बहुमूल्य पदार्थ यहां तक कि दांत कुरेदने का तिनका ही क्यों न हो, स्वामी से याचना किये बिना न स्वयं ग्रहण करता हूं, न दूसरों को ग्रहण करने के लिये प्रेरित करता हूं और न ग्रहण करने वालों का अनुमोदन ही करता हूं। ___ मैं मैथुन का सर्वथा त्याग कर आत्मस्वरूप में रमण करता हूं, क्योंकि काम राग जनित कोई भी चेष्टा चाहे वह प्राकृतिक हो अथवा अप्राकृतिक—अब्रह्मचर्य होता है तथा अब्रह्मचर्य आत्म विकास का अवरोधक होता है। मैं ब्रह्मचर्य का अमित महत्त्व मानता हूं क्योंकि एक मात्र ब्रह्मचर्य की साधना करने से अन्य सभी गुणों की साधना हो जाती है। शील, तप, विनय, संयम, क्षमा, निर्लोभता और गुप्ति—ये सभी ब्रह्मचर्य की आराधना से आराधित होते हैं। मैं पूर्ण प्रयत्नशील रहता हूं कि स्त्रियों के रूप, लावण्य, विलास, हास्य, मधुर वचन, काम चेष्टा एवं कटाक्ष आदि को मन में तनिक भी स्थान न दूं एवं रागपूर्वक देखने तक की भी कोशिशा न करूं, मैं जानता हूं कि मुझे स्त्रियों को न रागपूर्वक देखना चाहिये और न उनकी अभिलाषा करनी चाहिये। स्त्रियों का चिन्तन और कीर्तन भी मुझे नहीं करना चाहिये । मैं सदा ब्रह्मचर्य वर्त का पालन करते हुए उत्तम ध्यान में लीन रहता हूं। मैं अपने मन, वचन, काया को गोपन करने वाला मुनि हूं और वस्त्राभूषण से अलंकृत सुन्दर अप्सराएं भी मुझे मेरे मुनि धर्म और संयम से विचलित नहीं कर सकती हैं, फिर भी मैं सर्वतया हितकारी एकान्तवास का आश्रय लेता हूं। मैं अपने लिये टूटे हुए हाथ पैर वाली और कटे हुए कान नाक वाली सौ वर्ष की बुढ़िया का संग भी वर्जनीय मानता हूं। मैं पूर्णतया स्थिरचित्त होता हूं फिर भी आर्याओं तक का अधिक सम्पर्क समुचित नहीं मानता हूं। मैं अपने लिये शरीर के शृंगार, स्त्रियों के संसर्ग तथा पौष्टिक स्वादिष्ट भोजन को तालपुट विष के समान मानता हूं। ये मेरे संयम की घात करने वाले होते हैं। नव वाड से ब्रह्मचर्य का पालन मेरा महाव्रत है। ३६८

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