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पिण्ड भूत एक शरीर) के जीव अनन्त गुणे हैं। सुई के अग्र भाग पर निगोद पिण्ड का जितना भाग आये, इतने भाग में असंख्यात प्रतर होते हैं, उन प्रतरों में से एक-एक प्रतर में असंख्यात-श्रेणियां होती हैं, एक-एक श्रेणी में असंख्यात गोलक होते हैं। एक-एक गोलक में असंख्यात शरीर होते हैं, उन एक-एक शरीर के आश्रित अनन्त जीव होते हैं। ये निगोद बादर और सूक्ष्म दोनों प्रकार के होते
__ प्रत्येक संसारी आत्मा के असंख्यात प्रदेश हैं। एक-एक प्रदेश में अनन्त कर्म वर्गणाएं लगी हुई हैं, एक-एक वर्गणा में अनन्त पुद्गल परमाणु हैं। इस तरह अनन्त परमाणु आत्मा के साथ लगे हुए हैं, उनसे भी अनन्त गुणे पुद्गल परमाणु आत्मा से अलग हैं।
द्रव्य रूप से अपनी आत्मा का विस्तृत परिचय लेने के बाद मैं अपनी आत्मा की मुख्य रूप से वर्तमान आठ पर्यायों पर विचार करता हूं। मेरी आत्मा लगातार अन्यान्य स्व-पर पर्यायों को प्राप्त करती रहती है और उसमें हमेशा उपयोग अर्थात् बोध रूप व्यापार पाया जाता है। इसलिये मेरी आत्मा का स्वरूप उपयोग है। उपयोग की अपेक्षा से सामान्य रूप में सभी आत्माएं एक प्रकार की है किन्तु विशिष्ट गुण और उपाधि को प्रधान मान कर आत्मा के आठ भेद बताये गये हैं जो इस प्रकार हैं -
(१) द्रव्यात्मा–त्रिकालवर्ती द्रव्य रूप आत्मा द्रव्यात्मा है जो सभी आत्माओं के होती है।
(२) कषायात्मा—क्रोध, मान, माया, लोभ रूप कषाय विशिष्ट आत्मा कषायात्मा है। उपशान्त एवं क्षीण कषाय आत्माओं के सिवाय शेष सभी संसारी आत्माओं के कषायात्मा होती है।
(३) योगात्मा–मन, वचन, काया के व्यापार में प्रवर्तित होती हुई योगप्रधान आत्मा योगात्मा है। योग वाली सभी आत्माओं के योगात्मा होती है। अयोगी केवली और सिद्धों के यह आत्मा नहीं होती, क्योंकि वे योग रहित होती हैं।
(४) उपयोगात्मा–साकार-अनाकार रूप उपयोग प्रधान आत्मा उपयोगात्मा है। यह आत्मा सिद्ध और संसारी-सम्यक् दृष्टि व मिथ्यादृष्टि सभी आत्माओं के होती है।
(५) ज्ञानात्मा–विशेष अनुभव रूप सम्यक् ज्ञान से विशिष्ट आत्मा को ज्ञानात्मा कहते हैं। ज्ञानात्मा सम्यक् दृष्टि जीवों के होती है।
(६) दर्शनात्मा—सामान्य अवबोध रूप दर्शन से विशिष्ट आत्मा को दर्शनात्मा कहते हैं। यह आत्मा सभी जीवों के होती है।
(७) चारित्रात्मा–चारित्र गुण विशिष्ट आत्मा चारित्रात्मा कहलाती है। यह आत्मा विरति ग्रहण करने वालों के होती है।
(८) वीर्यात्मा–यह आत्मा उत्थान आदि रूप कारणों से युक्त होती है तथा सभी संसारी जीवों के होती है। यहां वीर्य का अर्थ लिया जाता है सकरण वीर्य और सकरण वीर्य सिद्ध आत्माओं के नहीं होता अतः उनमें वीर्यात्मा का सद्भाव नहीं माना जाता है। किन्तु उनमें भी लब्धिवीर्य की अपेक्षा से वीर्यात्मा का सद्भाव माना जाता है।
आत्मा की ये आठों एक प्रकार से पर्यायें हैं। मैं चिन्तन करता हूं कि इन आठों पर्यायों का पारस्परिक क्या सम्बन्ध है ? क्या एक पर्याय की विद्यमानता में दूसरी पर्याय का अस्तित्व रहता है
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