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वीतराग देवों ने इन प्रश्नों के सुन्दर समाधान उपदेशित किये हैं। जब किसी जीव के द्रव्यात्मा होती है तो कषायात्मा होती भी है और नहीं भी होती है। सकषायी द्रव्यात्मा के कषायात्मा होती है और अकषायी द्रव्यात्मा के नहीं। किन्तु जिसके कषायात्मा होती है, उसके द्रव्यात्मा नियम रूप से होती है। क्योंकि द्रव्यत्व के बिना कषायों की संभावना नहीं होती। यही अवस्था योगात्मा की भी होती है
और द्रव्यत्व के साथ ही योग व्यापार संभव होता है। परन्तु द्रव्यात्मा के साथ उपयोगात्मा नियम से होती है दोनों का परस्पर नित्य सम्बन्ध होता है। ये दोनों आत्माएं सिद्ध एवं संसारी सभी जीवों के होती हैं। ज्ञानात्मा सम्यक् दृष्टि द्रव्यात्मा के होती है, मिथ्यादृष्टि द्रव्यात्मा के नहीं, किन्तु जिसके ज्ञानात्मा है, उस के द्रव्यात्मा नियम से होती है। कारण, द्रव्य के बिना ज्ञान नहीं होता। दर्शनात्मा सभी जीवों के होती है। उपयोगात्मा की तरह दर्शनात्मा का भी द्रव्यात्मा से नित्य सम्बन्ध होता है।
ज्ञानात्मा की तरह ही चारित्रात्मा विरत द्रव्यात्मा के होती है, अविरत के नहीं, किन्तु चारित्रात्मा के द्रव्यात्मा होती ही है। यही वीर्यात्मा की अवस्था है। संक्षेप में द्रव्यात्मा में कषायात्मा, योगात्मा, ज्ञानात्मा, चारित्रात्मा और वीर्यात्मा की भजना है पर उक्त आत्माओं में द्रव्यात्मा का रहना निश्चित है।
इस प्रकार मैं आत्म स्वरूपी हूं-अपनी द्रव्यात्मा के साथ आत्मा की अन्य पर्यायों में रमण करता रहता हूं। यह भी मैं जान गया हूं कि मेरी आत्मा अमूर्त होने से इन्द्रियों द्वारा नहीं जानी जा सकती है और अमूर्त होने से ही वह नित्य है। मेरी आत्मा के साथ जो मिथ्यात्व, अज्ञान आदि दोष रहे हुए होते हैं, उन्हीं के कारण मेरे कर्म बंध होता है तथा इस कर्म बंध के कारण ही मेरा संसार में परिभ्रमण चलता है।
मैं जानता हूं कि ज्ञान, दर्शन, चारित्र, तप, वीर्य तथा उपयोग मेरी आत्मा के लक्षण हैं। मेरी आत्मा है, वही विज्ञाता है और जो विज्ञाता है, वही मेरी आत्मा है। जो ज्ञान के द्वारा जानती है, वही मेरी आत्मा है। ज्ञान की विशिष्ट परिणति की अपेक्षा से ही मेरी आत्मा ज्ञानात्मा कहलाती है। इस रूप में मैं आत्मवादी हूं क्योंकि मैं मेरे ज्ञान एवं मेरी आत्मा की एकता को जानता हूं और मेरी आत्मा संयम का अनुष्ठान करके सम्यक् पर्याय को प्राप्त करती है।
अपनी वृत्तियों एवं प्रवृत्तियों के संचरण में मैं अनुभव करता हूं कि मेरी आत्मा ही नरक की वैतरणी नदी और कूट शाल्मली वृक्ष है और मेरी यही आत्मा अपनी उच्चस्थ स्थिति में स्वर्ग की कामधेनु और नन्दन वन है। जब मेरी आत्मा सद् अनुष्ठानों में रत बनती है तब वह सुख देने वाली और दुःख दूर करने वाली हो जाती है। परन्तु जब असद् अनुष्ठानों में भटकने लगती है तो वहीं मेरी आत्मा दुःख देने वाली और सुख छीनने वाली बन जाती है। सदनुष्ठान रत आत्मा उपकारी होने से मित्र रूप है तो दुराचार में प्रवृत्त यही आत्मा अपकारी होने से शत्रु रूप हो जाती है। अतएव मेरा अनुभव है कि मेरी आत्मा ही सुख और दुःख को देने वाली तथा मित्र एवं शत्रु रूप है। इस रूप में मैं अपने आपको उद्बोधन देता हूं कि मैं जागू और समझू अपनी आत्मा के स्वरूप को जो सद् अनुष्ठानों में प्रवृत्त रहे तो वही मेरी सबसे श्रेष्ठ मित्र है, फिर मुझे अपने मित्र की बाहर कहां खोज करनी है ? इस सत्य को भी मैं हृदयंगम करूं कि दुराचार में लगी हुई मेरी आत्मा मेरा सिर काट देने वाले शत्रु से भी अधिक मेरा अपकार करती है क्योंकि दया रूप क्रिया एवं करुणा से शून्य मेरी आत्मा दुराचार में अंधी प्रवृत्ति करते हुए अपने उत्थान का कोई विचार नहीं कर पाती है और जब अपने वर्तमान जीवन के अन्त तक पहुंचती है तो अपने दुराचारों की याद करके दुःख ग्रस्त बनी पश्चाताप करती है।
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