Book Title: Aatm Samikshan
Author(s): Nanesh Acharya
Publisher: Akhil Bharatvarshiya Sadhumargi Jain Sangh

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Page 357
________________ रोकना तथा श्रोत्र द्वारा गृहीत विषयों में राग द्वेष न करना । (२) चक्षुरिन्द्रिय प्रति संलीनता - आंखों को उनके विषयों की ओर प्रवृत्ति करने से रोकना एवं आंखों द्वारा ग्रहण किये गये विषयों में राग अथवा द्वेष के भाव नहीं लाना । (३) घ्राणेन्द्रिय प्रतिसंलीनता - गंध के विषयों का निरोध एवं तटस्थता। (४) रसनेन्द्रिय प्रतिसंलीनता - रसना के स्वादविषयों पर निग्रह रखना तथा मनोज्ञ एवं अमनोज्ञ पर राग द्वेष नहीं करना । (५) स्पर्शेन्द्रिय प्रतिसंलीनता - स्पर्श विषयों में प्रवृत्त नहीं होना तथा राग द्वेष नहीं करना । कषाय प्रतिसंलीनता के चार (६) क्रोध प्रतिसंलीनता - उदय में आये हुए क्रोध को निष्फल बना देना । (७) मान प्रतिसंलीनता - मान कषाय पर नियंत्रण रखना अर्थात् अहंकार को निष्फल कर देना । (८) माया प्रतिसंलीनता - माया के अशुभ भावों को रोकना व विफल करना । (६) लोभ प्रतिसंलीनता - उदयित लोभ को निष्फल कर देना । योग प्रतिसंलीनता के तीन (१०) मन प्रतिसंलीनता - मन की अकुशल प्रवृति को रोकना, कुशल प्रवृत्ति कराना तथा चित्त को एकाग्र-स्थिर बनाना । (११) वचन प्रतिसंलीनता - अकुशल वचन को रोकना, कुशल वचन बोलना तथा वचन को स्थिर करना । (१२) काय प्रतिसंलीनता – अच्छी तरह समाधिपूर्वक शान्त होकर हाथ पैर संकुचित करके कछुए की तरह गुप्तेन्द्रिय होकर आलीन प्रलीन अर्थात् स्थिर होना काय प्रतिसंलीनता है। (१३) विविक्त शय्यासनता - स्त्री, पशु और नपुंसक से रहित स्थान में निर्दोष शयन आदि उपकरणों को स्वीकार करके रहना। आराम, उद्यान आदि में संथारा अंगीकार करना भी विविक्त शय्यासनता है । मैं चिन्तन करता हूँ कि प्रति संलीनता तप का आचरण बहुत महत्त्वपूर्ण है । काम भोगों के प्रति आकृष्ट होने वाली इन्द्रियाँ होती हैं और उनकी लिप्तता के साथ ही कषायों की उत्पत्ति होती है। असल में विषय के साथ कषाय जुड़ी हुई रहती है और उससे राग द्वेष के घात-प्रतिघात शुरू हो जाते हैं। इनके कुप्रभाव से त्रिविध योग व्यापार की शुभता समाप्त होने लगती है। इस प्रकार जहाँ याने कि जिस आत्मा में विषय कषाय का प्राबल्य हो जाता है तथा योग व्यापार निरन्तर अशुभता में भ्रमित होता रहता है, उस आत्मा का अधःपतन होता रहता है । इस दृष्टि से मैं प्रतिसंलीनता तप के महत्व को आंकता हूँ कि इसकी कठिन आराधना से इन्द्रियों, कषायों तथा योगों पर सफल नियंत्रण साधने का यत्न किया जाता है। मेरी धारणा बनती है कि प्रतिसंलीनता का तप वास्तविक रूप में जितेन्द्रियता का तप होता है जो कामांग रूप इन्द्रियों को वश में करता है तो उस निग्रह के प्रभाव से कषायों एवं योग व्यापारों पर जागृत आत्मा का नियंत्रण स्थापित करता है। जब विषय और कषाय मन्दतम हो जाते हैं तथा मन, वचन काया का योग व्यापार अधिकांशतः शुभता में ही रमण करता है, तब आत्म विकास की महायात्रा का एक महत्त्वपूर्ण चरण सम्पन्न हो गया है - ऐसा मानना चाहिये । ये उपरोक्त छः प्रकार के तप मुक्ति प्राप्ति के बाह्य अंग रूप हैं। इन्हें बाह्य द्रव्य आदि की अपेक्षा रहती है तथा ये तप प्रायः करके बाह्य शरीर को ही अधिक मात्रा में तपाते हैं । इन तपों की आराधना का शरीर पर विशेष असर पड़ता है तथा शरीर में आत्मिक ओज समा जाता है जो तेज रूप में बाहर परिलक्षित होता है। इन छः प्रकारों को बाह्य तप इसलिये भी कहा गया है कि इन तपों का सफल आराधक लोक में तपस्वी रूप प्रसिद्ध हो जाता है । वैसे आभ्यन्तर एवं बाह्य उभय तप विशेष परस्पर सापेक्ष है । बाह्य तप में आभ्यन्तर तप गौण भाव में रहता है और ३३२

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