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मनुष्य मायावी आचरण करते हुए भी उसकी कैसी भी आलोचना नहीं करता, दोष के लिये प्रतिक्रमण नहीं करता, आत्मसाक्षी से निन्दा नहीं करता, गुरु के समक्ष आत्मगर्दा नहीं करता, उस दोष से निवृत्त नहीं होता, शुभ विचार रूपी जल के द्वारा अतिचार रूपी कीचड़ को नहीं धोता, भूल को दुबारा नहीं करने का निश्चय नहीं करता तथा दोष के लिये उचित प्रायश्चित नहीं लेता। उसकी ऐसी प्रायश्चितहीन मनोवत्ति के ये आठ कारण बताये गये हैं जो त्याज्य हैं-(१) वह यह सोचता है कि जब मैंने अपराध कर लिया है तो अब उसका प्रायश्चित क्या करना? (२) अब भी मैं : अपराध को कर रहा हूं और निवृत्ति नहीं तो आलोचना कैसी ? (३) मैं उस अपराध को फिर करूंगा तब आलोचना क्यों? (४) आलोचना करने से अपकीर्ति होगी वरना अपराध को कौन जानता है ? (५) अवर्णवाद या अपयश (चारों ओर) होगा। (६) पूजा सत्कार मिट जायगा (७) कीर्ति मिट जायगी तथा (८) यश मिट जायगा।
मैं अपने अपराध को अपराध समझते हुए भी प्रायश्चित न करूं अथवा मायाचार के साथ प्रायश्चित करूं यह कतई योग्य नहीं है क्योंकि प्रायश्चित तभी सफल होता है जब शुद्ध हृदय से संचित पाप का छेदन किया जाय । मेरा प्रायश्चित तप का कृत्य अपने अपराध से मलिन चित्त को शुद्ध बनाने वाला होना चाहिये। चित्त की अशुद्धि न मिटे और प्रायश्चित का मात्र ढोंग किया जाय—उससे हृदय की अशुद्धि और अधिक बढ़ जाती है। मैं अपनी चित्त-शुद्धि के लिये निम्न रूप में चार प्रकार से प्रायश्चित करता हूं-(१) ज्ञान प्रायश्चित -पाप को छेदने एवं चित्त को शुद्ध करने वाला होने से ज्ञान ही प्रायश्चित रूप है—ऐसा चिन्तन करना ज्ञान प्रायश्चित होता है। ज्ञान के अतिचारों की शुद्धि के लिये विधिसम्मत आलोचना करना इस तप की आराधना करना है।
(२) दर्शन प्रायश्चित—इसी प्रकार दर्शन के सम्बन्ध में आलोचना करना । (३) चारित्र प्रायश्चित—इसी प्रकार चारित्र के सम्बध में आलोचना करना ।
(४) व्यक्तकृत्य प्रायश्चित-गीतार्थ मुनि छोटे बड़े का विचार कर जो कुछ करता है, वह सभी पाप विशोधक हैं। इसलिये व्यक्त अर्थात् गीतार्थ का जो कृत्य है, वह व्यक्तकृत्य प्रायश्चित होता है।
प्रायश्चित के अन्य भेद से भी चार प्रकार कहे गये हैं
(१) प्रतिसेवना प्रायश्चित—निषिद्ध अथवा अकृत्य का सेवन करना प्रतिसेवना कहलाता है, उसका जो आलोचना रूप प्रायश्चित होता है, वह प्रतिसेवना प्रायश्चित है।
(२) संयोजना प्रायश्चित—एक जातीय अतिचारों के मिल जाने को संयोजना कहते हैं। जैसे कोई साधु शय्यातर पिंड लाया, वह भी गीले हाथों से और उसे भी कोई सामने लेकर आया तथा वह भी आधाकर्मी। अतः जुड़े हुए इन सभी अतिचारों का प्रायश्चित संयोजना प्रायश्चित है।
(३) आरोपणा प्रायश्चित—एक अपराध का प्रायश्चित करने पर बार बार उसी अपराध को सेवन करने से विजातीय प्रायश्चित का आरोप करना आरोपणा प्रायश्चित है। जैसे एक अपराध के लिये पांच दिन (उपवास) का प्रायश्चित आया। फिर उसी के सेवन करने का दस दिन का। फिर उसको सेवन करने का पन्द्रह दिन का। इस प्रकार छ: मास तक लगातार प्रायश्चित देना। (छः मास से अधिक तप का प्रायश्चित नहीं दिया जाता है।) -
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