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अचक्षु दर्शन कहते हैं। (३) अवधि दर्शन–अवधि दर्शनावरणीय कर्म के क्षयोपशम होने पर इन्द्रिय और मन की सहायता के बिना आत्मा को रूपी द्रव्य के सामान्य धर्म का जो बोध होता है, वह अवधि दर्शन है। तथा (४) केवल दर्शन—केवल दर्शनावरणीय कर्म के क्षय होने पर आत्मा द्वारा संसार के सकल पदार्थों का जो सामान्य ज्ञान होता है उसे केवल दर्शन कहते हैं।
कर्मों को नाश करने की चेष्टा को मैं चारित्र धर्म कहता हूं जिसका कारण भूत मूल गुणों तथा उत्तर गुणों का समूह भी है तो धर्म सम्बन्धित क्रियाएं भी। मैं अनुभव करता हूं कि आत्म विकास के मार्ग पर चलने वाले सभी लोग समान शक्ति वाले नहीं होते। कोई इतना दृढ़ होता है जो मन, वचन और काया से सब पापों को त्यागकर एक मात्र आत्म विकास को अपना ध्येय बना लेता है। दूसरा कुछ दृढ़ दुर्बल ऐसा होता है कि सांसारिक इच्छाओं को एकदम रोकने का सामर्थ्य नहीं होने से धीरे-धीरे त्याग करता है। इसी तारतम्य के अनुसार चारित्र के दो भेद किये गये हैं -
(१) सर्व विरति चारित्र, अणगार धर्म या साधु धर्म सर्वविरति रूप धर्म में पंच महाव्रत होते हैं तथा तीन करण तीन योग (मन, वचन, काया तीनों से न करना, न करवाना तथा न करने का अनुमोदन करना) से त्याग होता है। साधु सदोष क्रियाओं का सम्पूर्ण रूप से त्याग करता है। पूर्ण होने से ही उसके व्रत महाव्रत कहे जाते हैं। ये पांच होते हैं।
(२) देशविरति चारित्र, सागार धर्म या श्रावक धर्म-श्रावक द्वारा आगार सहित व्रतों के पालन को देशविरति चारित्र कहते हैं। पूर्ण त्याग का सामर्थ्य न होने पर भी त्याग की भावना होने से श्रावक अपनी शक्ति के अनुसार मर्यादित त्याग करता है। साधु की अपेक्षा छोटे होने से श्रावक के व्रत अणुव्रत कहे जाते हैं। ये बारह होते हैं।
मेरी मान्यता है कि मूल रूप से विरति परिणाम को चारित्र कहते हैं जो अन्य जन्म में ग्रहण किये हुए करम संचय को दूर हटाने के लिये मोक्षाभिलाषी आत्मा को सर्वसावध योग से निवृत्त करता है। अन्य अपेक्षा से इसके पांच भेद हैं
(१) सामायिक चारित्र-आत्मा के प्रतिक्षण अपूर्व निर्जरा से होने वाली आत्म विशुद्धि का प्राप्त होना सामायिक है। सामायिक के क्रियानुष्ठान से आत्मा जन्म मरण के चक्र से होने वाले क्लेश को प्रतिक्षण नाश करती है, चिन्तामणि, कामधेनु एवं कल्पवृक्ष के सुखों का तिरस्कार करती है और निरूपम सुख पाती हुई ज्ञान, दर्शन एवं चारित्र की श्रेष्ठ पर्यायों को प्राप्त होती है। सामायिक चारित्र का अर्थ है सर्व सावध व्यापार का त्याग करना एवं निरवद्य व्यापार का सेवन करना। यों तो चारित्र के सभी भेद सावद्य योग विरति रूप हैं और वैसा भेद सामायिक भी है किन्तु जहां दूसरे भेदों के साथ छेद आदि विशेषण होने से नाम और अर्थ से भिन्न बताये गये हैं, वहां सामायिक सामान्य रूप ही है। सामायिक के दो भेद हैं -(१) इत्वरकालिक सामायिक अल्प काल की सामायिक जिसमें भविष्य में दूसरी बार फिर सामायिक व्रत का व्यपदेश हो। पहले और अन्तिम तीर्थंकरों के तीर्थ में जब तक शिष्य में महाव्रत का आरोपण नहीं किया जाता तब तक उसके इत्वरकालिक सामायिक होती है। तथा (२) यावत् कथिक सामायिक—यावज्जीवन की सामायिक जो शेष बावीस तीर्थंकरों के तीर्थ में होती है, क्योंकि इन शिष्यों को दूसरी बार सामायिक व्रत नहीं दिया जाता।
(२) छेदोपस्थापनिक चारित्र—पूर्व पर्याय का छेद करके जो महाव्रत दिये जाते हैं, उसे छेदोपस्थापनिक चारित्र कहते हैं। इसमें पूर्व पर्याय का छेद एवं महाव्रतों में उपस्थापन-आरोपण होता
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