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पुरुषवेद, संज्वलन क्रोध, मान और माया का क्षय करती है और संज्वलन लोभ का क्षय वह दसवें गुणस्थान में करती है।
(१३) सयोगी केवली गुणस्थान-जिन आत्माओं ने ज्ञानावरणीय, दर्शनावरणीय, मोहनीय और अन्तराय रूप चार घाती कर्मों का क्षय करके केवल ज्ञान प्राप्त किया है, वे सयोगी केवली कहलाती हैं और उनकी इस अवस्था विशेष को सयोगी केवली गुणस्थान कहते हैं। योग का अर्थ होता है आत्मा की प्रवृति या व्यापार जिसके तीन साधन हैं, इस कारण तदनुसार योग के भी तीन भेद हैं—मनोयोग, वचन योग तथा काया योग। किसी को मन से उत्तर देने में केवली भगवान् को मन का उपयोग करना पड़ता है। जिस समय कोई मनःपर्ययज्ञानी अथवा अनुत्तर विमानवासी देव केवली को शब्द द्वारा कोई प्रश्न न पूछकर मन से ही पूछता है, उस समय केवली भी उस प्रश्न का उत्तर मन से ही देते हैं। प्रश्न करने वाला उस उत्तर को प्रत्यक्ष जान लेता है और अवधिज्ञानी उस रूप में परिणत हुए मनोवर्गणा के परमाणुओं को देखकर ज्ञात कर लेता है। उपदेश देने के लिये केवली वचन का उपयोग करते हैं। हलन चलन आदि की क्रियाओं में वे काय-योग का उपयोग करते हैं।
(१४) अयोगी केवली गुणस्थान- जो केवली भगवान् योगों से रहित हैं, वे अयोगी केवली कहे जाते हैं। उनकी इस अवस्था एवं स्वरूप विशेष को अयोगी केवली गुणस्थान कहते हैं। तीनों प्रकार के योगों का निरोध करने से अयोगी अवस्था प्राप्त होती हैं। केवली भगवान् सयोगी अवस्था में जघन्य अन्तर्मुहूर्त तक और उत्कृष्ट कुछ कम एक करोड़ पूर्व तक रहते हैं। इसके बाद जिस केवली के आयुकर्म की स्थिति और प्रदेश कम रह जाते हैं तथा वेदनीय, नाम और गौत्र कर्म की स्थिति और प्रदेश आयुकर्म की अपेक्षा अधिक बच जाते हैं, वे समुद्धात करते हैं, जिसके द्वारा वेदनीय, नाम और गौत्र की स्थिति आयु के समान कर ली जाती है। जिन केवली आत्माओं के वेदनीय आदि उक्त तीनों कर्मों की स्थिति तथा प्रदेशों में आयुकर्म की समानता होती है, उन्हें समुद्धात करने की आवश्यकता नहीं है, इस लिये वे समुद्धात नहीं करती। सभी केवल ज्ञानी सयोगी अवस्था के अन्त में एक ऐसे ध्यान के लिये योगों का निरोध करते हैं जो परम निर्जरा का कारण, लेश्या से रहित तथा अत्यन्त स्थिरता रूप होता है। योगों के निरोध का क्रम इस प्रकार हैपहले बादर (स्थूल) काय योग से बादर मनोयोग तथा बादर वचन योग को रोकते हैं। बाद में सूक्ष्म काय योग से बादर कामयोग को रोकते हैं और फिर उसी सूक्ष्म कामयोग से क्रमशः सूक्ष्म मनोयोग तथा सूक्ष्म वचन योग को रोकते हैं। अन्त में सूक्ष्म क्रिया अनिवृत्ति शुक्ल ध्यान के बल से सूक्ष्म काय योग को भी रोक देते हैं। इस प्रकार सब योगों का निरोध हो जाने से केवलज्ञानी अयोगी बन जाते हैं और सूक्ष्म क्रिया अनिवृत्ति शुक्ल ध्यान की सहायता से अपने शरीर के भीतर पोले भाग याने मुख, उदर आदि को आत्मप्रदेशों से पूर्ण कर देते हैं। इसके बाद अयोगी केवली समुछिन्न क्रिया अप्रतिपाती शुक्ल ध्यान को प्राप्त करते हैं और मध्यम रीति से पांच ह्रस्व अक्षरों (अ, इ, उ, ऋ, लु) के उच्चारण में जितना समय लगता है, उतने समय का 'शैलेशीकरण' करते हैं। सुमेरू पर्वत के समान निश्चल अवस्था अथवा सर्व संवर रूप योग निरोध अवस्था को 'शैलेशी' अवस्था कहते हैं। इस अवस्था में वेदनीय, नाम और गौत्र कर्म की गुण श्रेणी से और आयु कर्म की यथास्थिति श्रेणी से निर्जरा करना शैलेशीकरण है। इसको प्राप्त करके वे चार अधाती या भवोपग्राही या आत्मा को संसार में बांध कर रखने वाले कर्मों का भी सर्वथा क्षय कर देते हैं। इस गुण स्थान में आत्म प्रदेश
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