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सकता है। इसलिये विषमता के विरुद्ध जो युद्ध करना है, वह मनुष्य को अपनी ही आन्तरिकता में करना है तथा अपने ही विमार्ग में भटकते हुए मन से करना है। मैं सोचता हूं कि जब मेरे मन की विषमता घट या मिट जाती है तो उतना ही मैं साम्ययोग का साधक बन जाता हूं। विषमता को घटाने और मिटाने के लिये ममता (सांसारिकता के प्रति मोह-ग्रस्तता) को घटानी और मिटानी पड़ेगी तथा जब विषमता घटती और मिटती जायगी तो समता उसी रूप में फूलती और फलती हुई चली जायगी।
मेरा चिन्तन गहरे उतरता है कि मैं समतावादी से समताधारी बनता जाऊंगा तो समतादर्शी बन जाने का साध्य भी मेरे समक्ष स्पष्ट हो जायगा। समता दर्शी हो जाना ही साम्य योग की अवाप्ति कर लेना है। समता की इस राह पर मेरा आगे बढ़ना क्या मेरे ही आत्म विकास को प्रभावित करेगा? यह तो उपलब्धि होगी ही किन्तु प्राभाविकता का क्षेत्र उससे भी कई गुना बड़ा होगा। मेरा समभाव, मेरी समदृष्टि और मेरा साम्य योग मेरे सम्पर्क में आने वालों में एक नये परिवर्तन का बीजारोपण करेंगे। जैसे एक मन से विषमता धीरे-धीरे या जल्दी दूर तक फैल जाती है, वैसे ही एक विशुद्ध मन से उपजी समता भी चाहे धीरे-धीरे ही असर करे लेकिन, दूर-दूर तक असर जरूर करेगी। समता के इस विस्तार में सामाजिक प्रयोग भी किये जाय तो समता का क्रियात्मक रूप अत्यधिक विस्तृत बनाया जा सकता है। सामाजिक प्रयोगों की सफलता के लिये किन्हीं प्रबुद्ध जनों की मन शुद्धि तो आवश्यक होती ही है। इस प्रकार मनुष्य के मन को ही सम्पूर्ण विकास का मूल आधार मानने के सिवाय दूसरा कोई चारा नहीं है।
इसलिये मेरा निश्चित मत है कि चाहे सामाजिक विषमता हो अथवा राष्ट्रीय विषमता या भले ही वह सम्पूर्ण मानव समाज की विषमता हो—उसका मूलोच्छेदन तो एक मनुष्य के मानस परिवर्तन के साथ ही प्रारंभ किया जा सकेगा। कार्य कितना ही विशाल क्यों न हो—किन्तु उसकी सम्पूर्ति के लिये उसके किसी न किसी छोटे छोर से ही कार्यारंभ करना होगा। विश्व की विषमता मिटानी है तब भी मनुष्य के मन की विषमता पर ही पहले प्रहार करना होगा। मनुष्य-मनुष्य के मन बदलते हुए एक समूह तक भी परिवर्तन का प्रसार हो जायगा तो उस सामूहिक शक्ति का प्रयोग भी साथ साथ में प्रारंभ किया जा सकेगा। व्यष्टि और समष्टि का इस रूप में सहयोग समता के अधिकतम विस्तार का कारण भूत हो सकता है।
मैं चिन्तन करता हूं कि मैं साम्य योग की अवाप्ति करूं और उस अवाप्ति को विश्वकल्याण का माध्यम बनाऊं। इस दृष्टि से मुझे अपने आत्म-समीक्षण में परिपक्वता लानी होगी और एकावधानता को सुदृढ़ बनानी होगी।
संसार के समस्त जीवों का परिवार मेरा आत्म-समीक्षण ध्यान मुझे नई अन्तःप्रेरणा देगा और वह यह कि सारी वसुधा ही मेरा कुटुम्ब है। दूसरे शब्दों में यह कि संसार के समस्त जीवों का परिवार ही मेरा पूरा और सच्चा परिवार है। जैसे मैं अपने छोटे घटक रूप परिवार का हितैषी और सहयोगी होता हूं, वैसी ही मेरी हित भावना और सहयोगी शक्ति अपने इस बड़े परिवार के प्रति भी होनी चाहिये। यों पूछे तो वह अधिक होनी चाहिये क्योंकि मेरे छोटे घटक परिवार में तो वयस्क होकर सभी सदस्य आत्म निर्भर एवं स्वावलम्बी बन जाते है किन्तु इस बड़े परिवार में तो पृथ्वी, पानी, वायु, वनस्पति और निगोध
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