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आदि के ऐसे सूक्ष्म जीव तथा जीवाणु होते हैं जिनकी रक्षा के लिये मेरी आन्तरिक जागृति सदा प्रदीप्त रहनी चाहिये। ये सभी जीव छः काया के जीव होते है— चौरासी लाख योनियों के जीव, जिनमें से किसी के प्रति मेरी हिंसक वृत्ति उत्तेजित नहीं बननी चाहिये। मैं उनमें से एक भी जीव के एक भी प्राण को कष्टित नहीं करूं इतना ही मेरा कर्त्तव्य नहीं है बल्कि मैं सभी जीवों के प्रति दयावान् होऊं तथा प्रत्येक जीव की रक्षा में अनुकम्पित होकर तत्पर बनूं - यह भी आवश्यक है। ये सभी जीव मेरे बड़े परिवार के सदस्य हैं और मैं समझता हूं कि मेरी करुणा की इन्हें अपेक्षा है ।
यह मैं समझ चुका हूं कि मैं संसार के समस्त जीवों के इस परिवार का सच्चा सदस्य भी कहला सकता हूं जब मैं साधु धर्म को स्वीकार करके इन छः काया के जीवों का सच्चा रक्षक और हिताकांक्षी बनूं। हृदय को इतना विशाल, उदार और विराट् बनाना सरल नहीं है। इसके लिये मैं जानता हूं कि मुझे कठोर साधना करनी होगी — मेरे अपने स्वार्थों को समाप्त करके सर्वहित में अपने निजत्व को समर्पित कर देना होगा। ऐसी साधना रत्नत्रय की सर्वोच्च आराधना से ही सफल बनती है और तभी साम्ययोग की अवाप्ति होती है। साम्ययोगी बनकर ही मैं समतादर्शी होता हूं—सबको समदृष्टि से देखता हूं और सबके हित के लिये अन्तः प्रेरित होता हूं ।
मुझे वीतराग देवों की वह उक्ति बराबर ध्यान में है जिसमें कहा गया है कि समस्त मानव जाति एक है और मैं इस एकता के फलस्वरूप अपने कर्तव्यों की दृष्टि से समस्त मानव जाति से जुड़ा हुआ हूं। यह प्रश्न किया गया है कि सर्व शास्त्रों का सार क्या है ? सम्पूर्ण आचरण का सार क्या है ? और वहीं उत्तर भी दिया गया है कि सम्पूर्ण प्ररूपणा का सार है आचरण, जो संसार के समस्त जीवों की रक्षा तक विस्तृत बनना चाहिये और तब सम्पूर्ण आचरण का सार बताया गया है निर्वाण । कहा गया है कि नारकीयों की दिशा अधोदिशा है और देवताओं की दिशा ऊर्ध्वदिशा अर्थात् आध्यात्मिक दृष्टि से अधोमुखी विचार नारक के प्रतीक होते हैं तो ऊर्ध्वमुखी विचार देवत्व की झलक दिखाते हैं ।
संयम की साधना का मुझे दीर्घ अनुभव है और मैं जानता हूं कि जैसे जैसे मन, वचन, काया के संघर्षशील योग अल्पतर होते जाते हैं, वैसे वैसे कर्मों का बंध भी अल्पतर होता जाता है। योग चक्र का पूर्णतः निरोध होने पर बंध का सर्वथा अभाव हो जाता है जैसे कि समुद्र में रहे हुए अच्छिद्र जलयान में जलागमन का अभाव होता है ।
साधक का जीवन मैं जानता हूं कि अन्तर्मुखी तथा ऊर्ध्वमुखी होता है। कछुआ जिस प्रकार अपने अंगों को अन्दर में समेट कर खतरे से बाहर हो जाता है, वैसे ही साधक भी अध्यात्म योग के द्वारा अन्तर्मुख होकर अपने को पाप वृत्तियों से सुरक्षित रखता है और अपनी सुख सुविधा की भावना से अनपेक्ष रहकर उपशान्त एवं दंभरहित होकर विचरता है। साधक की चार श्रेणियां मानी गई हैं—एक दर्पण के समान स्वच्छ हृदय वाला होता है, वहां दूसरा साधक हवा में उड़ती हुई पताका के समान अस्थिर हृदय वाला भी हो सकता है। तीसरी श्रेणी का साधक स्थाणु के समान मिथ्याग्रही और चौथी श्रेणी का साधक तीक्ष्ण कंटक के समान कटुभाषी होता है । पिछली तीनों श्रेणियां साधक की साधना की खोट बताती है। वस्तुतः आत्मदृष्टा साधक मधुकर (भंवरा) के समान होते हैं—वे कहीं किसी एक वस्तु या व्यक्ति की आसक्ति में आबद्ध नहीं होते ।
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