Book Title: Aatm Samikshan
Author(s): Nanesh Acharya
Publisher: Akhil Bharatvarshiya Sadhumargi Jain Sangh

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Page 405
________________ मैं देखता हूं कि एक प्रकार से इसी युद्ध का चित्र खींचते हैं चौदह प्रकार के गुणस्थान किस प्रकार एक साधक आत्मयोद्धा बन अपनी आन्तरिकता के शत्रुओं से जूझता है, गिरता है, बढ़ता है और चढ़ता है ? मिथ्यात्व को पछाड़ कर एक बार साधक ऊपर चढ़ने लगता है तो वह सम्यक्त्व का वरण करता है, व्रतों को ग्रहण करता है, श्रावक धर्म अंगीकार कर लेता है और अप्रमत्त संयत अवस्था तक पहुंच जाता है, किन्तु तनिक सी असावधानी, तनिक-सी कषाय वृद्धि और तनिक सी मोहाविष्टता उसे वहां से गिराती है तो उसे नीचे से नीचे लुढ़काती हुई मिथ्यात्व के घटाटोप अंधकार में पटक देती है । यदि वही अप्रमत्त संयती सतत जागृत रहता है और योग शुद्धि व कषाय मुक्ति के पथ पर अविचल गति से आगे बढ़ता रहता है तो वह कषाय के तीनों प्रकारों अनन्तानुबंधी, अप्रत्याख्यानावरण तथा प्रत्याख्यानावरण क्रोध, मान, माया, और 'लोभ से निवृत्ति ले लेता है। उस समय सिर्फ संज्वलन कषाय से निवृत्ति लेनी शेष रहती है । साधना को उच्चता देते हुए वह अपनी कषाय को अति सूक्ष्य कर लेता है कि मात्र संज्वलन लोभ के सूक्ष्म खंड ही बचे रहते हैं। वहां से वह और ऊपर के सोपान पर चढ़ जाता है, जहां कषाय उपशान्त हो जाती है और छद्मस्थ वीतरागता मिल जाती है । इस बिन्दु पर भी कषाय और योगों का ऐसा उद्वेग आ सकता है कि वह वहां से गिरे तो उससे नीचे की सीढ़ी पर और गिरता चला जाय तो ठेठ नीचे तलहटी में पहुंच जाता है। किन्तु यही बिन्दु, ऐसा होता है कि जहां से ऊपर सोपान की ओर दृढ़ता से पांव बढ़ गये तो वे क्षीण कषाय वीतरागता व सयोगी केवली के उच्चस्थ स्थानों तक निश्चय रूप से पहुंचा देते हैं। यही नहीं, अयोगी केवली बनकर वैसे साधक का मुक्तिगामी हो जाना भी सुनिश्चित हो जाता है । मेरा आशय यह है कि आत्म विकास के क्रम में ज्यों-ज्यों ऊंचाई प्राप्त होती जाय, त्यों-त्यों सावधानी अधिकाधिक बढ़ती रहनी चाहिये । इस का यह भी अर्थ मान लिया जाय कि जहां संयम के प्रभाव से आते हुए कर्मों को रोकने में सफलता पाई जाय, वहाँ तपाराधन की उग्रता से संचित कर्मों की निर्जरा भी की जाती रहे । गुणस्थान – सिद्धान्त का यही संकेत है कि योग शुद्धि और कषाय मुक्ति का साधनाक्रम इतना परिपुष्ट तथा परिपक्क बनता जाय कि ये सांसारिक विकार किसी भी स्तर पर आत्म स्वरूप पर आक्रमण करके सम्पादित उच्चता को व्यर्थ न कर सकें। इस साधना को ही विषमता के विरुद्ध युद्ध कहता हूं । विषमता पहले मन में उपजती है तभी वचन से बाहर निकलती है और कार्य से विस्तार पाती है। एक व्यक्ति इस प्रकार विषमता उगलता है जिसकी क्रिया प्रतिक्रिया की शृंखला बन जाती है और यही शृंखला सामाजिक अथवा राष्ट्रीय विषमता का भयानक रूप ले लेती है। तब यह विषमता व्यक्ति के व्यक्तिगत और सामाजिक व्यवहार में इस तरह घुलमिल जाती है कि मनुष्य अपनी मनुष्यता को ही भुला बैठता है। तब वह अपने सामने रख लेता है मात्र अपने ही स्वार्थों को और उनको येन-केन प्रकारेण पूरे कर लेने के लिये वह पागल हो जाता है। यह पागलपन जितना फैलता है— पशुता फैलती है, राक्षसी वृत्ति फैलती है। उसे ही विषम समाज कहा जाता है । जब सबके सामने इस फैलती हुई विषमता को दूर करने का सवाल आता है तो मैं बुनियादी रूप से सोचता हूं और उस स्रोत को देखना चाहता हूं जहां से विषमता का बीज फूटता है । वह स्रोत मुझे मनुष्य का मन दिखाई देता है— यों ही कह दूं कि वह मेरा स्वयं का मन भी हो ३८०

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